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पापित्य कथानकों के आधार पर भ. पार्श्वनाथ के उपदेश
उपसंहार ___ उपरोक्त- विवेचन से स्पष्ट है कि पार्श्व के सैद्धान्तिक उपदेशों के अन्तर्गत (१) पंचास्तिकाय (२) कर्मवाद और उसके विविध आयाम (३) अनंतसुखी मोक्ष (४) शाश्वत पर परिमित एवं परिवर्तनशील लोक (५) जीव-शरीर-भिन्नता के माध्यम से स्वतंत्र आत्मवाद (६) जीव के अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्वं, अदृश्यत्व, ऊर्ध्वगामित्व, कर्तृत्व और भोगतृत्व (७)चार गतियां
और पांच ज्ञान: रागांवस्था में गतिबंध (८) सत्कार्यवाद (९) चातुर्याम धर्म/सामायिक धर्म (१०) सान्तर-उत्तर वस्त्र मुक्तित्व (११) हिंसा-अहिंसा का विवेक पर्याय और परिस्थिति पर निर्भर (१२) धार्मिक पदों के अर्थ व्यवहार एवं निश्चयनय की दृष्टि से लगाने की चर्चा आदि विन्दु आते हैं। इसके अतिरिक्त, आचार के क्षेत्र में भी कषाय, हिंसा, पापस्थान एवं मिथ्या-दर्शन से विरमण, अचित्त आहार, व्रत-उपवास आदि के द्वारा इन्द्रिय - मन नियंत्रण; परिषह सहन, सामायिक, संयम, संवर, तप एवं निर्जरा का अभ्यास, पूर्वकृत कर्मों एवं आसक्ति के अल्पीकरण की प्रक्रिया का पालन
आदि नैतिक जीवन के उन्नयन के उपदेश प्रमुख हैं। निश्चय-व्यवहार • सिद्धान्त के समान वाह्य एवं अन्तरंग आचार का उपदेश भी दिया गया
है। ये सभी परम्परागत उपदेश महावीर ने भी अपनाये हैं। दोनों ही - तीर्थंकर महिलाओं के प्रति उदार थे। दोनों ही मुक्तिलक्षी थे। . फिर भी, ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर के उपदेशों की तुलना में भ० पार्श्व के युग में निम्न सैद्धान्तिक मान्यतायें उतनी स्पष्ट रूप से नहीं मिलती - (१) कालद्रव्य (२) सप्त-तत्व/नव पदार्थ (इनके परोक्ष संकेत हो सकते हैं) (३) दैनिक प्रतिक्रमण की अनिवार्यता (४) पंचयाम धर्म (ब्रह्मचर्य यम) और छेदोपस्थापना चरित्र (५) अष्टप्रवचन माता का महत्व (समिति और गुप्ति) (६) विभज्यवाद एवं अनेकान्तवाद का वर्तमान रूप (७) अचेल मुक्ति की ऐकान्तिक मान्यता। इन तत्वों का विकास भ. महावीर के समय में हुआ लगता है। इसीलिये महावीर संघ में दीक्षित होने वाले पापित्य पंचयाम एवं सप्रतिक्रमणी दीक्षा लेते थे। इन कुछ कठोरताओं के कारण ही महावीर-संघ बना तो रहा पर फैल नहीं पाया। इसके साथ ही, पार्श्व के