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आपत्ति की व कहा कि अपने गुरु ने तो कहा था कि 'अज' अर्थात् पुराना धान्य जिसमें अंकुरित होने की क्षमता न हो। यही 'अज' का सनातन अर्थ है। दोनों में विवाद बढ़ने पर पर्वत बोला कि राजा वसु की सभा में शास्त्रार्थ कर इसका निर्णय होगा। यह कहकर नारद घर चला गया। पर्वत ने घर आकर यह वृतान्त अपनी माँ से कहा। तब पर्वत की माँ ने उसे समझाया कि नारद की बात ही सत्य है। पर प्रातः होने पर पुत्र मोह में पर्वत की माँ राजा बसु के घर गई व बसु से गुरु दक्षिणा मांगते हुए याचना की कि हे पुत्र, यद्यपि तुम सभी तत्व-अतत्व को जानते हो, पर सभा में तुम्हें पर्वत के वचनों का ही समर्थन करना है, नारद के नहीं। गुरु दक्षिणा पाकर स्वस्तिमती निश्चिंत होकर घर चली गई।
प्रातः उचित समय पर नारद व पर्वत सर्व शास्त्रों के ज्ञाताओं से घिरे राज दरबार में पहुँचे। दोनों के बीच धर्मार्थ प्रारंभ हुआ। पूर्व पक्ष पर्वत ने रखा व नारद ने उसके अर्थ को उसकी स्वयं की कल्पना बतलाया व कहा कि गुरु जी ने हम तीनों को एक सा ज्ञान दिया था। यह पर्वत 'अज' का विपरीत अर्थ कर रहा है। वह बोला-जैसे गो शब्द-पशु, किरण, मृग, इंद्रिय, दिशा, बज्र, घोड़ा, वचन और पृथ्वी अर्थ में प्रसिद्ध है, परन्तु सभी अर्थों में उसका पृथक-पृथक ही उपयोग होता है। शब्दों के अर्थ में जो प्रवृत्ति है, वह या तो रुढि से होती है, या क्रिया के अधीन होती है। 'अज' का गुरु प्रतिपादित अर्थ तो 'जौ' है। अर्थात् तीन वर्ष पुराना धन्य। ना जायन्ते इति अजाः। प्राणियों के घात करने वाले को स्वर्ग नहीं मिल सकता। तब सभा में उपस्थित सभी विद्वानों ने एक मत से नारद की बात का समर्थन किया। पर गुरु दक्षिणा के कारण राजा बसु ने जैसे ही पर्वत की बात का समर्थन किया; तभी उसका स्फटिक मणिमय आसन पृथ्वी में धंस गया व राजा बसु पाताल में जा गिरा व मरकर सातवें नरक पहुँचा। तब सभी ने राजा बसु की घोर निंदा की व पर्वत को नगर से बाहर निकाल दिया। पर्वत भी मरकर नरक पहुँचा, मिथ्या-पोषण की उन्हें सजा मिली। बाद में बसु पुत्र
संक्षिप्त जैन महाभारत -29