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निमग्न रहता था। एक बार इस पापात्मा ने लाख का सुन्दर भवन बनवाया व उसका नाम लाक्षागृह रखा। कई चतुर वास्तु शिल्पियों के निर्देशन में कपटपूर्वक इस भवन का निर्माण कराया गया। यह काम दुर्योधन ने गुप्त रीति से करवाया था। भवन पूर्ण होने पर दुर्योधन पितामह गांगेय/ भीष्म के पास पहुँचा व बोला-मैंने एक अभिनव राजप्रसाद निर्मित करवाया है। उसकी शोभा अवर्णनीय है। मेरी दिली इच्छा है कि भ्राता युधिष्ठिर इसमें सकुटुम्ब निवास करें व अपने आलौकिक प्रताप को दशों दिशाओं में फैलायें। तब स्वभाव से सरल पितामह ने कहा-कि तुम सभी का एक स्थान पर रहना बैरभाव को बढ़ाता है। अतः तुमने यह अच्छा कार्य किया है। इसके बाद भीष्म पितामह ने पांडवों को बुलाया व दुर्योधन का प्रस्ताव बतलाया व कहा कि तुम लोग इसमें निवास करने के लिए प्रस्तुत हो जाओ। तब पांडवों ने सहर्ष भीष्म पितामह की बात को स्वीकार कर लिया। इसके बाद शुभ दिन व शुभ मुहूर्त पर पांडवों ने सपरिवार माता कुन्ती के साथ इस राजप्रसाद में प्रवेश किया व वहीं आनंद से रहने लगे। सभी पांडव दुर्योधन के इस कपट जाल से अनभिज्ञ थे। पर दुर्योधन की इस कुटिल चाल का भान किसी प्रकार विदुर को हो गया जो इनके चाचा थे।
विदुर महान विद्वान व दयालु थे। विदुर ने युधिष्ठिर को बुलाकर समझाया कि इन दुर्बुद्धि कौरवों का विश्वास तम्हें कदापि नहीं करना चाहिए। उनका आचरण अत्यन्त निदंनीय है। वे तुम सबका वध कर पांडव वंश को निर्मूल करने पर तुले हैं। मुझे विश्वस्त सूत्रों से पता चला है कि यह भव्य प्रासाद दुर्योधन ने कपटपूर्वक लाख से बनवाया है। अतः इस महल में रात्रि में सोते समय भी सचेत रहा करो। तब विदुर ने-जो धर्मशील होने के कारण पांडवों से अपार स्नेह रखते थे-चतुर खनिकों को बुलाकर महल के नीचे से वन की ओर एक सुरंग निर्मित करा दी। यह कार्य बड़ी चतुराई व गुप्त रूप से करवाया। इसके बाद विदुर ने पांडवों को भी
संक्षिप्त जैन महाभारत - 81