Book Title: Sankshipta Jain Mahabharat
Author(s): Prakashchandra Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust

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Page 169
________________ देवकी व रोहणी को छोड़कर वसुदेव की सभी स्त्रियों ने भगवान नेमिनाथ की दिव्य देशना से प्रभावित होकर आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। श्रीकृष्ण की पुत्रियों ने भी दीक्षा धारण कर ली। इसके बाद नेमिप्रभु ने उत्तर, मध्य व पूर्व दिशा के अनेक स्थानों पर विहार कर धर्मामृत की वर्षा की जिससे प्रभावित होकर अनेक राजाओं ने मुनिधर्म स्वीकार कर लिया व अनेकों ने श्रावक धर्म अपना लिया। काफी समय पश्चात् भगवान नेमिनाथ का समवशरण पुनः गिरनार पर्वत पर आया। वे समवशरण के मध्य विराजमान हो गये। तब प्रद्युम्न आदि पुत्रों सहित वसुदेव, बलदेव व श्रीकृष्ण भी प्रजाजनों के साथ धर्मलाभ लेने के लिए गिरनार स्थित समवशरण में गये। वहां पहुँचकर बलदेव ने नेमिप्रभु से द्वारिकापुरी का भविष्य जानना चाहा। उन्होंने श्रीकृष्ण के भविष्य के बारे में भी प्रश्न किया। उन्होंने पूछा कि द्वारिकापुरी की समृद्धि एवं श्रीकृष्ण का साम्राज्य कब तक रहेगा एवं यह भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि श्रीकृष्ण के मोह से बंधे मुझे संयम की प्राप्ति कब होगी । बलदेव के प्रश्न सुनकर भगवान नेमिनाथ की दिव्यध्वनि खिरने लगी। उन्होंने कहा आज से बारहवें वर्ष में मदिरा के निमित्त से द्वीपायन मुनिराज के क्रोध से द्वारिका भस्म हो जायेगी। अंतिम समय में श्रीकृष्ण कौशांबी के वन में जरतकुमार के कारण विनाश को प्राप्त होंगे। श्रीकृष्ण की मृत्यु के निमित्त से आप विरक्त होकर तपस्या कर ब्रह्म स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। चूंकि द्वीपायन कुमार वसुदेव की पत्नी रोहणी का भाई था एवं बलदेव का मामा था। अतः वह दिव्यध्वनि के माध्यम से यह जानकर कि मेरे कारण द्वारिका भस्म होगी। वह संसार से विरक्त होकर मुनि बन गये एवं बारह वर्ष की अवधि पूर्ण करने हेतु द्वारिका से काफी दूर पूर्व देशों की ओर गमन कर गये और वहां तपस्या करने लगे। जरतकुमार यह सोचकर काफी दुःखी हुआ कि उसके निमित्त से श्रीकृष्ण का विनाश होगा। अतः वह भी दुखी होकर ऐसी जगह चला गया, जहां श्रीकृष्ण दिखाई भी न दें। जरतकुमार संक्षिप्त जैन महाभारत 167

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