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दी। उस समय श्रीकृष्ण के वस्त्र का एक भाग हवा से हिल रहा था, जिसे जरतकुमार ने समझा कि यह मृग के शरीर का कोई भाग / कान है। उसने उसी सीध में एक विष में बुझा तीर छोड़ दिया। वह तीर सीधे जाकर श्रीकृष्ण को लगा । तीर लगने पर श्रीकृष्ण ने जोर से कहा कि किसने मुझे तीर मारा है, सामने आये।
अतः
तब जरतकुमार ने सामने आकर अपना परिचय देते हुए कहा कि मै हरिवंश नरेश वसुदेव का पुत्र एवं श्रीकृष्ण का भाई हूँ। कायर मनुष्य इस वन में प्रवेश नहीं कर सकते, मैं अकेला ही वीर बनकर इस वन में घूमता फिरता हूँ । मुझे अपना छोटा भाई श्रीकृष्ण बहुत ही प्यारा है। मैं 12 वर्ष से इस वन में इसलिए रहता हूँ ताकि मेरे द्वारा श्रीकृष्ण का मरण न हो । जरत कुमार से यह सब सुनकर श्रीकृष्ण ने उसे पास बुलाया। तब दोनों एक दूसरे को तुरन्त पहचान गये । यह देखकर जरतकुमार श्रीकृष्ण के चरणों में गिर गया व अपने भूल से हुए कृत्य के लिए उनसे क्षमा मांगी। तब कृष्ण ने जरतकुमार को गले लगाया व मन में यह सोचकर कि बलदेव इसे कभी माफ नहीं करेंगे, जरत कुमार को अपनी कौस्तुभ माणि प्रदान की एवं उससे शीघ्र ही यह कहकर चले जाने को कहा कि तुम यह मणि दिखलाकर पांडवों के साथ जाकर रहना। तब जरत कुमार ने श्रीकृष्ण के पैरों से वाण निकाला एवं श्रीकृष्ण से आज्ञा लेकर वहां से चला
गया।
जरतकुमार के चले जाने के पश्चात् वाण की तीव्र वेदना से श्रीकृष्ण ने पंच परमेष्ठी भगवंतों का स्मरण कर नेमिप्रभु को अंत: मन से स्मरण किया व उन्हें बारंबार नमस्कार किया। बाद में वे शुभ्र वस्त्र ओढ़कर लेट गये। उन्होंने शुभ भावों पूर्वक अपने शरीर का त्याग किया व तीसरी पृथ्वी में चले गये। जहां से चयकर वे भविष्यकाल के तीर्थंकर के रूप में भरत क्षेत्र में ही जन्म लेंगे।
उधर जब बलदेव पानी की तलास में निकले, तो उन्हें काफी दूर जाना पड़ा। तब कहीं उन्हें एक सरोवर दिखाई
संक्षिप्त जैन महाभारत 171