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तीर्थंकर नेमिनाथ का मोक्षकल्याणक
विविध देशों में अपने समवशरण के साथ दिव्य देशना देते हुए केवली भगवान नेमिनाथ रैवतक/ऊर्जयंत/गिरनार पर्वत पर जा पहुँचे। इसके पूर्व उन्होंने 699 वर्ष 9 माह तक केवली के रूप में विहार कर धर्मोपदेश दिया। भगवान नेमिनाथ के आयु कर्म का अब मात्र एक माह शेष बचा था। यहां भी उन्होंने समवशरण में विराजमान होकर अपनी दिव्य ध्वनि के माध्यम से अपना अंतिम धर्मोपदेश दिया। उन्होंने यहीं योग निरोध किया व पर्यंकासन में निष्क्रियरूपेण अवस्थित हो गये तथा अंत में गुणस्थान की 85 प्रकृतियों का नाश कर संपूर्ण अघातियां कर्मों का नाश कर आसाड़ शुक्ला सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के प्रारंभ में 586 मुनिवरों के साथ मुक्तिधाम/मोक्ष पधार गये। तब चतुर्निकाय के देवों ने आकर भगवान के अंतिम शरीर से संबंध रखने वाली निर्वाण कल्याणक की पूजा की। तभी क्षणमात्र में उनका शरीर बिजली के समान संपूर्ण आकाश को दैदीप्यमान करते हुए विलीन हो गया। तब इन्द्र ने गिरनार की पांचवी टोंक पर वज्र के माध्यम से पवित्र सिद्ध शिला को उकेर कर निर्माण किया। आज भी पांचवी टोंक पर भगवान के चरण चिन्ह अंकित हैं तथा उनकी भव्य मूर्ति भी उनकी निर्वाण भूमि पर मूल शिला में उत्कीर्ण है।
पांडव पुराण में भगवान नेमिनाथ के पूर्व भवों का भी वर्णन किया गया है। इसके अनुसार वे पहले विंध्याचल पर्वत पर भील थे। फिर क्रमशः श्रेष्ठ गुणवान वणिक, इमकेतु देव, चिंतामणि नाम के विद्याधर नरेश, फिर सुमंत, महेंद्र, तत्पश्चात राजा अपराजित फिर अच्युतेंद्र देव हुए। इसके पश्चात् वे सुप्रतिष्ठित नाम के नरेश हुए। वहां से जयंत विमान में अहमिन्द्र पद के धारी देव हुए। फिर वहां से चयकर भरत क्षेत्र में तीर्थंकर नेमिनाथ हुए। वे नेमिनाथ भगवान हम सब की रक्षा करें। पांडव पुराण में आगे उल्लेख मिलता है कि सभी पांडव
संक्षिप्त जैन महाभारत - 177