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पूर्वभव में अभ्युदयशील ब्राह्मण थे। जिन्होंने तप कर अच्युत स्वर्ग को प्राप्त किया व फिर वहां से चयकर पांच पांडव बने। उनमें से ज्येष्ठ तीन पांडवों ने तो इसी भव से मोक्ष प्राप्त किया व शेष दो पांडव आगे जाकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। नकुल व सहदेव अपने पूर्व भव में धनश्री व मित्र श्री नाम की बहनें थीं जिन्होंने तपश्चरण के प्रभाव से स्त्री लिंग को छेदकर देवलोक में देव का पद धारण किया व वहां से चयकर वे नकुल व सहदेव नाम के पांडव बने थे।
उधर तुंगीगिरि के समीप वन में बलदेव तपश्चरण करते हुए विहार करने लगे। वहां कुछ उपद्रवी लोगों ने उनके ऊपर अनेक परीषह करने की सोची। पर उन्हीं के भाई जो देवलोक में सिद्धार्थ बने थे, ने उन मुनिराज के चरणों में सिंहों के समूह रच दिये। उसी समय से बलदेव मुनिराज नरसिंह इस नाम की प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। एक सौ वर्ष तपश्चरण करने के पश्चात् समाधिमरण कर बलदेव ने ब्रह्मलोक में इन्द्र के पद को प्राप्त किया था, ऐसा हरिवंश पुराण में उल्लेख आता है। इसके बाद वरदत्त नाम के मुनि को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई थी।
जरतकुमार हरिवंश की संतति को धारण कर द्वारिकापुरी के राज्य का भार संभालने लगा था। कलिंग नरेश की पुत्री उसकी पटरानी थी। इन दोनों के बसुध्वज नाम का पुत्र हुआ। जो जरतकुमार के बाद द्वारिकापुरी का महाराजा बना। राजा बसुध्वज के बाद सुबसु व सुबसु के पश्चात् भीमवर्मा हरिवंश में नरेश हुए। तत्पश्चात इसी वंश में अनेक राजा हुए। बाद में इसी वंश में कापिष्ट नरेश हुए। कापिष्ट के बाद इस वंश में क्रमशः अजातशत्रु, शत्रुसेन जितारी, जितशत्रु नाम के नरेश हुए। राजा जितशत्रु के साथ भगवान महावीर स्वामी के पिता राजा सिद्धार्थ की छोटी बहन का विवाह हुआ था। इसका नाम यशोदया था। इनकी यशोदा नाम की पुत्री थी। महाराज सिद्धार्थ इसी यशोदा नाम की कन्या से भगवान महावीर के साथ विवाह की इच्छा रखते थे। जो महावीर स्वामी के वैराग्य धारण कर लेने के कारण संभव
178 - संक्षिप्त जैन महाभारत