Book Title: Sankshipta Jain Mahabharat
Author(s): Prakashchandra Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust

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Page 176
________________ पांडवों का वैराग्य व मोक्षगमन इसके पश्चात् सभी पांडव द्वारिका नगरी आये। किन्तु यहां आकर श्रीकृष्ण के विनाश, उनके साम्राज्य के वैभव के पराभव एवं महाबलियों के युद्ध में विनाश ने उन्हें विरागी बना दिया। तब वे सभी पांडव द्वारिका से चलकर पल्लव देश आये व वहां भगवान नेमिनाथ के समवशरण में पहुँच गये। उन्होंने यहां पर समवशरण में भगवान नेमिप्रभु के दर्शन किये व उनकी वंदना की एवं उनकी दिव्यदेशना सनी। अपनी दिव्यदेशना में उन्होंने कहा कि सुख का मुख्य साधन धर्म है और जीव दया ही सच्चा धर्म है। उन्होंने दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार और बारह प्रकार के तप-तपचार व बलवीर्य को प्रकाशित करने वाला वीर्याचार इस प्रकार पंचााचारों का महत्व प्रतिपादित किया। सम्यक्त्व पर आधारित तीन प्रकार के धर्मो- सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र का विवेचन किया। इसके बाद अपनी देशना में उन्होंने दस धर्मों का वर्णन किया एवं कहा कि निर्मलतापूर्वक मोह से उत्पन्न विकल्प जालों को त्याग कर आत्म-स्वरूप चितवन में लीन होकर आत्मधर्म प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने अपनी देशना में आगे बतलाया कि वास्तव में चिद्रूप, शुद्ध, शांत, केवलज्ञान स्वरूप, सर्वार्थ वेदक तथा उपयोगमय आत्मा ही धर्म है। व्यवहार धर्म की साधना से ही निश्चय धर्म की प्राप्ति होती है यह एक ध्रुव सत्य है। तब धर्मभीरू पांडवों ने अपने भवांतरों एवं द्रौपदी आदि के बारे में पूछा। तब केवली भगवान ने उन सभी के पूर्व भवों का वर्णन कर उन्हें संबोधित किया। अपने पूर्व भवों का केवली भगवान के मुख से वृतांत सुनकर सभी पांडवों ने घर जाकर राज-सत्ता अपने पुत्रों को सौंप दी। इसके बाद समवशरण में आकर भगवान से दीक्षा देने हेतु प्रार्थना की। इसके बाद सभी पांडवों ने भगवान के श्री चरणों में क्षेत्र, वस्तु आदि बाहरी तथा मिथ्यात्व आदि आंतरिक परिग्रहों का त्याग कर केशलोंच करने के पश्चात् मुनि दीक्षा धारण कर ली। पांडवों के साथ ही कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी 174 - संक्षिप्त जैन महाभारत

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