Book Title: Sankshipta Jain Mahabharat
Author(s): Prakashchandra Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust

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Page 167
________________ आश्रव के दो भेद हैं- सांपरायिक आश्रव व ईर्यापथ आश्रव। मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्म कषाय गुणस्थान तक के जीव सकषाय हैं व वे सांपरायिक आश्रव के स्वामी हैं। जबकि उपशांत कषाय से लेकर संयोग केवली तक के जीव अकषाय हैं तथा वे ईर्यापथ आश्रव के स्वामी हैं। चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली भी अकषाय हैं। पर योग के अभाव से उन्हें आश्रव नहीं होता। पांच इंद्रिय, चार कषाय, पांच अव्रत व पच्चीस क्रियायें सांपरायिक आश्रव के द्वार हैं। तभी श्रीकृष्ण ने जीव तत्व के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। तब दिव्य ध्वनि से नेमिप्रभु ने बतलाया कि जीव उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप गुणवान, सूक्ष्म, ज्ञाता, दृष्टा, कर्ता, भोक्ता, ग्रहण किये शरीर के बराबर सुख दु:ख का संवेदन करने वाला कर्मबद्ध होकर चारों योनियों में भ्रमण करने वाला भी है। यही जीव अपने गुणों व तत्पश्चरण से अष्ट कर्मों का नाश कर चरम शरीरी हो जाता है। तभी देवकी ने वरदत्त गणधर से पूछा- मेरे यहां छह मुनिराज आहारचर्या हेतु पधारे थे, उनके प्रति मेरे हृदय में अपार प्रेम उमड़ा। इसका क्या कारण है? तब गणधर स्वामी ने बतलाया कि तेरे छै युगलियां पुत्रों को भद्रिलपुर नगर की अलका सेठानी ने पालपोष कर बड़ा किया था। वही आपके यहां आहार को पधारे नव दीक्षित मुनि थे। इसलिए इनके प्रति तेरा इतना प्यार उमड़ा। ये सभी इसी भव से मोक्ष जायेंगे। तब देवकी ने बड़े ही भक्तिभाव से नेमिप्रभु की वंदना की। सत्यभामा, रूक्मणी, जाम्बबंती, सुसीमा, लक्ष्मणा, गांधारी, गौरी व पदमावती जो श्रीकृष्ण की पटरानियां थीं, ने भी क्रम-क्रम से अपने पूर्वभव पूछे व जानकर संतुष्ट हुईं तथा उन्होंने भगवान नेमिप्रभु का धर्म अंगीकार कर लिया। सभी सभासदों ने भी धर्म स्वीकार किया। अनेकों ने महाव्रतों व श्रावक व्रतों को अंगीकार किया। नेमिप्रभु ने अपनी दिव्यवाणी से धर्म का मर्म बतला कर मोक्ष प्राप्ति का उपाय बतलाया। उन्होंने श्रावक व मुनिधर्म के भेद से धर्म के दो भेद बतलाकर उनकी विशेषताओं का संक्षिप्त जैन महाभारत - 165

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