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था। तब उस बाला ने मुनि श्री के चरणों में निवेदन कर जानना चाहा कि उसकी नाक चपटी क्यों है? तब महामुनि ने बतलाया कि पिछले भव में तूने एक ध्यानस्थ मुनि पर गाड़ी चढ़ाई थी। उसी कारण से इस भव में तेरी नाक चपटी है ? यह सुनकर वह सुव्रत नाम की गणनी के पास जाकर आर्यिका बन गई। उसने व्रत, गुण, संयम, उपवास व अच्छी-अच्छी भावनायें भाकर अपने भावों को पवित्र किया। वह हमेशा तप में लीन रहती थी व गणिनी के साथ तीर्थक्षेत्रों की यात्रा भी करती थी। इसके बाद वह कभी विंध्याचल पर्वत पर पहुँची व वहां प्रतिमा योग धारण कर विराजमान हो गई। तभी वहां भीलों की एक बड़ी सेना आई । उन्होंने उसे वनदेवी मानकर नमस्कार किया व बोले कि आपके प्रसाद से निरूपद्रव रहकर यदि हम लोग धन प्राप्त कर सकेंगे, तो हम सभी आपके दास होंगे। ऐसा कह कर भील सेना बढ़ गई व उन्होंने आगे जा रहे यात्रियों व व्यापारियों के जत्थे से अनायास ही मोटी रकम प्राप्त कर ली। इसी बीच एक सिंह ने आर्यिका माता के ऊपर घोर उपसर्ग कर दिया। तब आर्यिका माता ने समाधिमरण लेकर मरणपर्यंत अनशन का नियम ले लिया। जिससे वह प्रतिमायोग से ही मरण कर स्वर्ग चली गई। जब भील वहां वापिस लौटे; तो उन्हें वहां आर्यिका माता की तीन अंगुलियां ही मिलीं। तब भीलों ने उस वनदेवी / आर्यिका को यहां-वहां खोजा, पर उसका कहीं पता न चलने पर उन तीन अंगुलियों को ही देवता के रूप में विराजमान कर दिया; और वहां जंगली जानवरों की बलि दे डाली; क्योंकि उन्हें तो भाग्यवश लूट में बेतहासा संपत्ति मिली थी। तभी से वहां उस स्थान की प्रसिद्धि दुर्गा के उत्पत्ति स्थान के रूप में हो गई। जिसे आज विन्ध्यवासिनी देवी के रूप में पूजा जाता है। बाद में यहां देवी प्रतिमा विराजमान कर दी। देखो तो भाग्य की विडम्बना कि वह साध्वी तो समाधिमरण कर स्वर्ग चली गई। पर लोभी भीलों आदि ने उस पवित्र स्थान को बलि देकर अपवित्र कर दिया।
संक्षिप्त जैन महाभारत 115