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मुनिश्वर आकाश मार्ग से वहां अवतीर्ण हुए एवं भीष्म पितामह के समीप जाकर उनसे कहने लगे- 'हे महाभाग्य! तुम उच्च कोटि के मनीषी एवं वीराग्रणी हो। तुम्हारे जैसा सत्पुरुष संसार में कोई अन्य दृष्टिगोचर नहीं होता है।' यह सुनकर भीष्म पितामह ने उन सर्वमान्य महामुनियों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर कहा- हे प्रभो! यद्यपि मैं अंतिम सांस ग्रहण कर रहा हूँ, परन्तु परम धर्म की शरण को मैं अब तक प्राप्त नहीं कर सका। इसे मेरे दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। अब मैं आप लोगों की शरण में आया हूँ; अतः उत्तम उपदेश देकर मुझे भवसागर से उत्तीर्ण होने का मार्ग बतलाने का कष्ट करें।
यह सुनकर उनमें से एक मुनिश्वर बोले- हे भव्य! तुम सिद्ध भगवंतों को नमस्कार करके चार आराधनाओं को दत्त चित्त होकर ग्रहण कर लो- वे हैं 1. दर्शन आराधना, 2. ज्ञान आराधना 3. चारित्र आराधना, 4. तप आराधना। जिसमें सम्यक्त्व की आराधना की जाती है; उस तत्वार्थ श्रद्धान को दर्शन आराधना कहते हैं। जिसमें जिनदेवभाषित भावनाओं के ज्ञान की आराधना की जाती है; आत्मा के उस निश्चित ज्ञान को ज्ञानाराधना कहते हैं; जिसमें कर्मों की निवृति एवं आत्मा में प्रवृति की आराधना की जाती है। उस
चैतन्य स्वरूप में प्रवृति करने को चारित्राराधना कहते हैं एवं जिसमें आंतरिक एवं बाहय तपों का पालन किया जाता है एवं दो प्रकार के संयम ग्रहण किये जाते हैं, उनको तपाराधना करते हैं। इन उपर्युक्त आराधनाओं में निश्चय एवं व्यवहार का संबंध है। इस प्रकार इन आराधनाओं की विधि का उपदेश देकर वे मुनिश्वर व्योम मार्ग से प्रस्थान कर गये। भीष्म पितामह ने इन चारों आराधनाओं को श्रद्धापूर्वक धारण करके उनकी साधना आरंभ कर दी। वे चतुर्विधि आहार एवं अपनी देह से ममत्व त्याग कर संल्लेखना ग्रहण कर दर्शन चरित्र में लीन हो गये। उन्होंने संपूर्ण जीवों से क्षमा याचना की एवं समस्त प्राणियों को क्षमा भी प्रदान की। इसके पश्चात् 'पंच नमस्कार मंत्र' का स्मरण करते हुए आकुलता
132. संक्षिप्त जैन महाभारत