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द्रौपदी का हरण व वापिसी
एक बार हस्तिनापुर में राज्य सभा के दौरान नारद जी पधारे। युधिष्ठिर नारद जी को अंतःपुर की ओर ले गये । उस समय द्रौपदी शृंगार करने में लीन थी। उसने नारद जी को नमस्कार नहीं किया। नारद जी इसे अपना तिरस्कार समझ कर वहां से चले गये। वे प्रतिशोध लेने की सोचकर द्रौपदी को दुखित करने के निर्णय पर पहुँचे। जब नारद जी को संपूर्ण जम्बूद्वीप में कोई परस्त्री रत राजा नहीं मिला, तब वे घातकीखंड द्वीप की अमरकंकापुरी के राजा पद्मनाभ के पास पहुँचे। यह राजा स्त्री लम्पट था। राजा पद्मनाभ ने नारद जी को अपना रनिवास दिखाकर पूछा कि क्या इससे भी सुन्दर स्त्रियां कहीं पर हो सकतीं हैं। तब नारद जी ने द्रौपदी का एक सुन्दर चित्र उस राजा को उपहार स्वरूप भेंट किया व द्रौपदी के रूप - लावण्य का वर्णन विस्तार से किया। इससे राजा पद्मनाभ के मन में द्रौपदी के प्रति लालसा जाग गई। तब राजा पद्मनाभ ने नारद जी से निवेदन किया कि वह मुझे कैसे प्राप्त होगी? इतना सुनकर नारद जी वहां से चले गये ।
तब पद्मनाभ ने पहले द्रौपदी प्राप्ति की इच्छा से संगम नामक देव को सिद्ध किया। जब वह संगम देव प्रकट हो गया, तब राजा ने उससे द्रौपदी को लाने को कहा। वह देव शीघ्र ही व्योम मार्ग से हस्तिनापुर आ गया व सुप्त अवस्था में द्रौपदी का हरण कर निद्रितावस्था में ही उसे पद्मनाभ के महलों में ले आया। उसे निद्रित अवस्था से बाहर लाने के लिए राजा पद्मनाभ ने द्रौपदी से कहा- कि हे विश्वसुन्दरी ! निद्रा त्याग कर अपने शरीर को वस्त्रों से ढक लो। वह द्रौपदी के अप्रतिम सौंदर्य को देखकर मदहोश सा हो गया था। द्रौपदी ने जब पुनः सोने का प्रयास किया, तो राजा पद्मनाभ द्रौपदी से पुनः बोला- मैं यहां का राजा पद्मनाभ हूँ, आपकी प्राप्ति के लिए घोर दुख सहन कर आपको प्राप्त किया है। अब आप प्रसन्न होवें व यहीं सुखपूर्वक रहें व मेरी कामपीड़ा को शांत करने का कष्ट करें।
संक्षिप्त जैन महाभारत 155