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धारण कर भोजन का भी त्याग कर दिया है। इसके पश्चात् श्रीकृष्ण व पांडव सागर तट पर पहुँचे व वहां तीन उपवास का व्रत रखकर व्रतोद्यापन द्वारा समुद्राधिपति स्वस्तिक देव को प्रसन्न कर लिया। उस देव ने श्रीकृष्ण व पांडवों को समुद्री जल पर चलने वाले अनेक रथ प्रदान किये। इन रथों पर सवार होकर श्रीकृष्ण के साथ सभी पांडव महासमुद्र को पार कर शीघ्र ही अमरकंकापुरी के उद्यान में जा पहुँचे। तब राजा पद्मनाभ के दूत ने अपने नरेश को जाकर बतलाया कि श्रीकृष्ण व पांडव यहां आ पहुँचे हैं तो उसने अपनी भारी सेना को उनके विरूद्ध युद्ध करने भेज दिया। पर वह सेना श्रीकृष्ण आदि से पराजित होकर शीघ्र ही अपने नगर में जा घुसी। तब पद्मनाभ नरेश ने नगर के कपाट बंद करवा दिये तथा स्वयं राजमहल में कहीं जाकर छिप गया। तब श्रीकृष्ण व पांडवों ने नगर के कोट व द्वार को भंग कर दिया तथा वे सभी नगर में प्रविष्ट कर गये।
यह देखकर राजा पद्मनाभ अपना विनाश नजदीक जान कर द्रौपदी की शरण में पहुँच गया व उससे क्षमा याचना करने लगा। तभी पांडवों सहित श्रीकृष्ण भी वहां पहुँच गये। उन्हें देखकर राजा पद्मनाभ रक्ष-रक्ष कहता हुआ श्रीकृष्ण व पांडवों की शरण में पहुँच गया एवं द्रौपदी से क्षमा याचना पूर्वक अभय दान ले लिया। पांडवों व श्रीकृष्ण ने भी शरणागत को क्षमा दान दे दिया। सभी लोग द्रौपदी को पाकर अति प्रसन्न हुए। तब सभी ने मिलकर द्रौपदी को पारणा कराया। सभी पांडव श्रीकृष्ण का आभार मानकर घातकीखंड द्वीप से रवाना होने ही वाले थे कि तभी श्रीकृष्ण ने पांचजन्य शंख की गंभीर ध्वनि की। तब समीप स्थित घातकीखंड के चंपापुर के नरेश जो नारायण भी थे एवं जिनका नाम कपिल था, ने समवरण में विराजमान मुनिसुव्रत स्वामी से यह जानकर कि यह शंख ध्वनि जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के नारायण श्रीकृष्ण ने की है। तो कपिल के मन में श्रीकृष्ण से मिलने की जिज्ञासा प्रकट हुई। तब भगवान मुनिसुव्रत ने कपिल को बतलाया कि चक्री का चक्री, नारायण का
संक्षिप्त जैन महाभारत 157