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श्रीकृष्ण अपने कुछ विश्वास पात्रों को लेकर नेमिनाथ के विवाह का प्रस्ताव लेकर भोजवंशी नरेश राजा उग्रसेन जो जूनागढ़ के अधिपति थे एवं जिनकी धर्मपरायणा महारानी का नाम जयावती था, के पास गये और उनसे नेमिनाथ के लिए उनकी पुत्री राजुल/राजमती की याचना की। राजा उग्रसेन ने अपनी पत्नी से चर्चा कर श्रीकृष्ण को इसकी स्वीकृति प्रदान कर दी एवं उन्हें अन्यान्य कीमती उपहार देकर विदा कर दिया। दोनों पक्षों में शादियों की तैयारियां होने लगीं। नेमिनाथ प्रभु के विवाहोत्सव में पांच प्रकार के रत्नों का विवाह मंडप बनाया गया। विवाह मंडप के बीच वेदिका एवं चारों ओर मोतियों की लटकने लगाईं गईं। फूलों की माला बांधकर सोने की चौकी पर बैठकर नेमिकुमार ने राजमति के साथ गीले चावलों पर बैठने का विवाह पूर्व का नेग किया। __ वर के जलधारा के दिन (दूसरे दिन) श्रीकृष्ण को लोभ आया कि कहीं नेमिनाथ हमारा राज्य न ले लें। राज्य लोलुपता के कारण नेमिनाथ को संसार से विरक्त कराने के उद्देश्य से उन्होंने बारात के मार्ग में एक बाडे में मृगों व अन्य पशुओं को बंधवा दिया। जब बारात के रास्ते में नेमिनाथ ने मूक पशुओं को बंधे व चीत्कार करते हुए सुना, तो जिज्ञासावश उन्होंने सारथी से पूछ लिया कि यह निरीह पशु क्यों बांधे गये हैं। तब रक्षकों के यह उत्तर देने पर कि बारात में पधारे मांसाहारी राजाओं एवं मेहमानों के भोजन की व्यवस्था हेतु इन्हें वध हेतु बांधा गया है। इस पापपूर्ण उत्तर को सुनते ही नेमिप्रभु गृहस्थ जीवन से विरक्त हो गये। वे विचारने लगे कि यह निरपराध तृण खाकर जीने वाले, दूसरों को रंचमात्र भी पीड़ा न पहुँचाने वाले सीधे-सादे पशुओं को मेरे विवाह के निमित्त मार दिया जायेगा। प्राणी वध का फल तो निश्चित ही पाप का बंध है। चार प्रकार के बंधों से भयभीत होकर व अपने पुराने भवों की याद कर वे कांप गये व उन्हें वैराग्य उत्पन्न होने लगा। तभी लोकांतिक देवों ने आकर उनसे वैराग्य हेतु वैराग्य वचन कहकर उनके वैराग्य को दृढ़तम बना दिया। नेमिप्रभु ने बंधन युक्त पशुओं को छुड़वा दिया व
संक्षिप्त जैन महाभारत - 161