Book Title: Sankshipta Jain Mahabharat
Author(s): Prakashchandra Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust

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Page 155
________________ नागकुमारी के साथ वहां पहुँच कर कहने लगी कि आप लोगों को गुरुजनों ने जो आशीर्वाद दिये थे, वे सब आज सफल हो गये। इधर आप लोगों ने जरासंध पर तो उधर वसुदेव ने सभी विद्याधरों पर विजय प्राप्त की है। अतः वसुदेव ने ज्येष्ठ जनों के चरणों में प्रणाम व पुत्रों के प्रति आलिंगन का संदेश कहा है। इतना कहते ही वसुदेव विजित विद्याधरों ने आकाश मार्ग से आकर बलदेव व श्रीकृष्ण को नमस्कार किया व अनेक उपहार उन्हें भेंट किये। जरासंध के मारे जाने पर यादवों ने जहां खुशी से नृत्य किया था, उस स्थान को आनंदपुर कहा जाने लगा। इसके बाद यहां अनेक जैन मंदिर भी निर्मित किये गये। __तदनंतर श्रीकृष्ण ने शेष भरत क्षेत्र को जीता तथा वे कोटिशिला की ओर गये। कोटिशिला से करोड़ों मुनि मोक्ष गये थे, इसीलिए उसे कोटिशिला कहते हैं। श्रीकृष्ण ने वहां कोटिशिला की पूजा की व उस शिला को चार अंगुल ऊपर उठाया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण तीन खंड के अधिपति होकर राजकीय उत्सव व समारोह के साथ उल्लासपूर्वक अपनी सेना सहित द्वारिकापुरी में प्रविष्ठ हुए। वहां सभी राजाओं ने श्रीकृष्ण का अभिषेक किया। तभी जरासंध के एक मंत्री ने जरासंध के दूसरे पुत्र सहदेव को श्रीकृष्ण की शरण में सौंप दिया। तब श्रीकृष्ण ने अपनी महत्ता प्रदर्शित कर उदारता से कार्य किया व सहदेव को उसके राज सिंहासन पर अभिसिक्त कर उसे मगध देश का राजा बना दिया। सत्पुरुषों में शत्रुता की भावना तभी तक रहती है, जब तक कि उनका शत्रु नम्र नहीं हो जाता। शत्रु के नम्र होते ही शत्रुता स्वयं समाप्त हो जाती है। वीर पुरुष पांडवों के लिए श्रीकृष्ण ने उनका प्रिय राज्य हस्तिनापुर दे दिया। राजा रुधिर के नाती रुक्मनाभ को उन्होंने कौशल नरेश बना दिया। अपने शेष साथियों को भी उन्होंने यथायोग्य स्थानों का राजा बनाकर सबको खुशी-खुशी विदा कर दिया। सुदर्शन चक्र, सारंग धनुष, सौनंदन खड़ग, कौमुदी संक्षिप्त जैन महाभारत - 153

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