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पिता विद्या साधन की अभिलाषा से वन में तपस्या कर रहा है। जयाद्रि के विछिन्न मस्तक को लेकर उसके पिता के हाथों में रख देना; तो उसका पिता भी तत्काल मरण को प्राप्त हो जायेगा। इतना कहकर शासन देवता चले गये।
प्रातः होने पर दोनों सेनायें आमने सामने थीं। गुरु द्रोणाचार्य जयाद्रि से बोले तुम निश्चित रहो। तुम्हारी रक्षा का भार अब मेरे समर्थ कंधों पर है। ऐसा कहकर गुरु द्रोणाचार्य ने जयाद्रि को रक्षा के लिए चौदह हजार हाथियों के सुरक्षित घेरे में रख दिया। उन हाथियों के चहुँओर भी तीन घेरे थे। पहला अश्वों का, दूसरा साठ हजार रथों का व तीसरा बीस लाख पदाति सैनिकों का। इस प्रकार जयाद्रि की रक्षा का उत्तम प्रबंध कर गुरु द्रोणाचार्य स्वयं युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हुए। उधर अर्जुन ने युधिष्ठिर के सम्मुख उपस्थित होकर उन्हें प्रणाम कर हर्षित चित्त से युद्ध की आज्ञा मांगी। जो युधिष्ठिर ने सहर्ष प्रदान कर दी। युद्ध प्रारंभ हो गया। अर्जुन के युद्ध कौशल को देखकर कौरव सेना पलायन की अवस्था में पहुँच गई। तब गुरु द्रोणाचार्य ने अपनी सेना में साहस का संचार किया। तभी अर्जुन ने गुरू द्रोणाचार्य के सामने आकर प्रणाम कर कहा- हे गुरुवर आप कृपा कर यहां से स्थानांतरण कर जाइये ताकि मैं शत्रु सेना का नाश कर सकू। तब गुरू द्रोणाचार्य बोले कि बिना युद्ध किये मैं यहां से कैसे प्रस्थान कर सकता हूँ। यह सुनकर अर्जुन ने क्रुद्ध होकर गुरू द्रोणाचार्य पर नौ बाण छोड़े, पर गुरू द्रोणाचार्य ने उन्हें बीच में ही नष्ट कर दिया। तब अर्जुन ने लक्षाधिक बाणों का प्रयोग कर गुरू द्रोणाचार्य पर छोड़े, पर गुरू द्रोणाचार्य ने उन्हें भी नष्ट कर दिया। यह देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि इस समर भूमि में गुरु शिष्य का बाण निक्षेप शोभनीय नहीं है। इससे हमने जो शत्रु नाश की योजना निश्चित की है, वह क्रियान्वित नहीं हो पा रही है। यह सुनकर अर्जुन ने अपने हाथ में असि धारण कर एक पाव से आगे बढ़ना चाहा, तभी गुरू द्रोणाचार्य ने कहा कि उधर
संक्षिप्त जैन महाभारत - 137