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ध्वनित किया; जिसके निनाद को सुनकर जयाद्रि का हृदय भयविह्वल हो गया तथा उसका मुखमंडल निष्तेज हो गया।
युद्ध समाप्त होने की आशंका से जब जयाद्रि अपने गुप्त स्थान से निकलकर बाहर आया, तो उसने पार्थ को बड़ी वीरता के साथ युद्ध करते देखा, उसने देखा कि पार्थ के चारों ओर विच्छिन्न नरमुंड एवं पशु शव पड़े हुए थे। उस दिवस कौरवों का ऐसा कोई भी सैनिक नहीं बचा था, जो रक्त स्नात न हो गया हो। तभी अर्जुन की दृष्टि जयाद्रि पर पड़ गई। उसे देखते ही अर्जुन क्रोधांत हो उठा व उसके नेत्रों से अग्नि वर्षा होने लगी। वह जयाद्रि से बोला कि हे नीच नराधम! तुम्हीं ने अन्यायपूर्वक वीर अभिमन्यु का बध किया है। प्रातःकाल से अब तक मैं तेरा ही अन्वेषण कर रहा था। ऐसा कहकर अर्जुन ने जयाद्रि के धनुष, रथ, अश्व एवं कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला एवं शासन देवता प्रदत्त नाग रूपी धनुष बाण चालकर क्षण भर में ही जयाद्रि के मस्तक को उसकी देह से अलग कर दिया। जयाद्रि का छिन्न मस्तक अर्जुन की प्रेरणा से आकाश में उड़ता हुआ उसके पिता के कर में जा गिरा, जिसके अवलोकन मात्र से ही उसके पिता की भी मृत्यु हो गई। जयाद्रि के निहत होते ही पांडवों की सेना में जय जयकर होने लगी व कौरवों की सेना में हाहाकार मच गया। जयाद्रि के निहत होने से सर्वाधिक दुख दुर्योधन को हुआ, तभी अश्वत्थामा ने आकर दुर्योधन को सांत्वना प्रदान की व कहा कि मैं आपके चिर शत्रु पांडवों को युद्ध में विनष्ट किये देता हूँ। ऐसा कहकर उसने अपने धनुष बाण से अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। शीघ्र ही अश्वत्थामा ने अर्जुन के धनुष की डोरी काट दी। अर्जुन अपने गुरू पुत्र की वीरता को देखकर अति प्रसन्न हुए। यदि अर्जुन चाहता तो वह ऐसी स्थिति में अश्वत्थामा को भी बंदी बना सकता था पर गुरू पुत्र समझ कर अर्जुन ने उसे उस समय क्षमा कर दिया। किन्तु अनेक वीरों को धराशायी अवश्य कर दिया। इस प्रकार युद्ध करते-करते सूर्यास्त हो जाने के
140 - संक्षिप्त जैन महाभारत