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स्थान की ओर गमन किया, जहां उसके मृत भ्राताओं के शव लुंठित थे। उनकी वीभत्स स्थिति को देखकर उसको रोमांच हो आया। तब दुर्योधन के सारथी ने करबद्ध प्रार्थना कर कहा-हे महाराज! अब युद्ध करना उचित नहीं है। आप वैमनस्य के भाव का परित्याग कर अपने नगर लौट चलिये। सारथी के इस परामर्श को सुनकर दुर्योधन को क्रोध आ गया व वह सारथी से रोष पूर्ण स्वर में बोला-कायर! यह क्या अनर्गल प्रलाप कर रहा है। इस पर सारथी ने उत्तेजित होकर कहा-आपने ही पांडवों से शत्रुता कर इस आपत्ति को आमंत्रित किया है। समस्त कुल के सर्वनाश का कारण आप ही हैं। शताधिक भ्राताओं का प्राण नाश हो गया है। इतनी विशाल सेना विनष्ट हो गई है। सभी बड़े-बड़े वीर योद्धा काल कवलित हो गये हैं। आप दुराग्रह क्यों नहीं त्यागते। तब दुर्योधन ने स्पर्धा पूर्वक कहा- तो फिर अब देख मैं क्या करता हूँ। मैं अकेला ही पांडवों का विनाश कर दूंगा। यह निश्चित है।
यह कहकर दुर्योधन स्वयं पांडवों से युद्ध करने लगा। प्रबल उत्साह से दोनों ओर की सेनायें युद्ध करने लगीं। सैनिक परस्पर शस्त्रास्त्रों से प्रहार करने लगे। युधिष्ठिर भद्र नरेश के साथ एवं भीम दुर्योधन से युद्ध करने लगा। नकुल कर्ण के तीन पुत्रों के साथ युद्ध करने लगा। इसी बीच दुर्योधन ने भीमसेन के धनुष को नष्ट कर दिया। तब भीमसेन ने शक्ति धारण कर उसी शक्ति से दुर्योधन के वक्षस्थल पर ऐसा प्रचंड आघात किया कि दुर्योधन वहीं मूर्छित होकर गिर पड़ा। जब उसे पुन: चैतन्यता प्राप्त हुई, तो वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर भीमसेन पर प्रबल बाण वर्षा करने लगा एवं उसने भीम के कवच को विछिन्न कर दिया। अपनी दुर्गति होते देखकर भीम को क्रोध आ गया। उसने घमासान युद्ध कर कुछ ही समय में बीस हजार सैनिक, आठ हजार रथ, आठ हजार हस्ती एवं हजारों अश्व नष्ट कर दिये। यह देखकर उसके भय से शत्रु कांपने लगे। तभी दुर्योधन को सम्मुख देखकर युधिष्ठिर ने उससे कहा
146 - संक्षिप्त जैन महाभारत