Book Title: Sankshipta Jain Mahabharat
Author(s): Prakashchandra Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust

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Page 141
________________ धवल धारा फूट पड़ी। जिससे सब अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार उस पुनीत जल को उपयोग में लेने लगे। यह देखकर व्योम से देवों ने कहा- कि जो महापुरूष अपने अद्भुत पराक्रम से क्षण भर में पाताल गंगा को भूतल पर ला सकता है, उसके संग युद्ध करके विजय की कामना करना मूर्खता नहीं, तो और क्या है? इसके पश्चात् रथ आगे बढ़े व पुनः युद्ध प्रारंभ हो गया। इसके साथ ही कौरवों के सेना की विनाश लीला प्रारंभ हो गई। तभी पलायन करती हुई सेना को लक्ष्य कर दुर्योधन ने कहा कि क्या यही तुम्हारी वीरता है? दुर्योधन की इस बात को सुनकर संजयंत ने कहा कि हे राजन्! क्या आपने श्रीकृष्ण एवं पार्थ का प्रचंड रूप नहीं देखा है। महान वीर भी उनके सम्मुख जाने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। फिर भी आप जानना चाहते हैं कि सेना क्यों पलायन कर रही है। ये अजेय वीर हैं। पार्थ की प्रशंसा सुनकर दुर्योधन उन्मत्त होकर गुरु द्रोण का तिरस्कार कर कहने लगा कि आपने यह क्या किया? पार्थ को बाधा रहित मार्ग प्रदान कर आपने हमारी सैन्य शक्ति का अपमान किया है । समझ में नहीं आता कि आपकी बुद्धि को यह क्या हो गया है। दुर्योधन के इस आक्षेप पूर्ण कथन को सुनकर द्रोणाचार्य खिन्न हो उठे व बोले कि मैं पार्थ के समकक्ष नहीं हो सकता हूँ। वह महापराक्रमी वीर है। तुम यह क्यों नहीं सोचते कि एक युवक का सामना एक वयोवृद्ध व्यक्ति कहां तक कर सकेगा। हां, तुम उसी के समान युवक हो, इसलिए पार्थ का सामना तुम्हें ही करना चाहिए। गुरु द्रोण के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर दुर्योधन ने एवमस्तु कहा व बोला कि अब आप केवल दर्शक बनकर देखते रहिये। ऐसा कहकर दुर्योधन पार्थ से युद्ध करने लगा। वह पार्थ से बोला कि तुम्हारा गांडीव धनुष अब तक किसी सुयोग्य वीर के सामने नहीं पड़ा है। यह सुनकर पार्थ द्विगुणित उत्साह के साथ दुर्योधन से युद्ध करने लगा। इसी समय श्रीकृष्ण ने अपना पांचजन्य शंख संक्षिप्त जैन महाभारत - 139

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