Book Title: Sankshipta Jain Mahabharat
Author(s): Prakashchandra Jain
Publisher: Keladevi Sumtiprasad Trust

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Page 144
________________ व ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर गुरू द्रोणाचार्य को पूर्ण विवश कर दिया। गुरू को विवश देखकर पार्थ गुरू द्रोणाचार्य के समीप गये एवं उनसे अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना की। पार्थ के सामने अपनी विवशता देखकर गुरू द्रोणाचार्य लज्जित हुए एवं युद्ध से उदासीन हो गये। इसके पश्चात् पार्थ ने अपने सारथी को कर्ण, दुर्योधन एवं अश्वत्थामा आदि वीरों की ओर रथ संचालन का आदेश दिया। गुरू द्रोणाचार्य की दुर्गति देखकर दुर्योधन विचलित हो गया। तब कर्ण ने दुर्योधन को सांत्वना प्रदान की एवं स्वयं अर्जुन से युद्ध करने लगा। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। बाणों की अनवरत वर्षा से आकाश मंडल आच्छादित हो गया। परन्तु शीघ्र ही अर्जुन ने कर्ण के रथ एवं धनुष को नष्ट कर दिया। उधर घायल गुरू द्रोणाचार्य दृष्टद्युम्न से युद्धरत थे। उन्होंने उसके रथ, ध्वजा, व अश्व को नष्ट कर दिया और पांडवों के बीस हजार क्षत्रिय राजाओं को नष्ट कर दिया। उन्होंने एक लाख सैनिकों, अनेक हस्तियों, अश्वों एवं रथों को भी नष्ट कर दिया। तभी आकाश वाणी हुईहे द्रोण! तुम इस प्रकार अपार हिंसा द्वारा पापार्जन क्यों कर रहे हो। इन राजाओं से तुम्हारा क्या विरोध है। तुम तो व्यर्थ ही इस विवाद में पड़े हो। हिंसा का त्याग करो एवं अपने हृदय को पवित्र कर स्वर्ग का आतिथ्य स्वीकार करो। यह आकाशवाणी सुनकर भीम ने भी उन्हें युद्ध का त्याग करने को कहा। तब गुरू द्रोणाचार्य ने भीम से कहा- ऐसा कदापि नहीं हो सकता। जब तक मैं जीवित हूँ, तब तक कौरवों के लिए लड़ता रहूँगा। यह कहकर द्रोणाचार्य पुनः दृष्टद्युम्न से युद्ध करने लगे। दूसरी ओर अश्वत्थामा भीम पुत्र घटुक के साथ युद्ध कर रहा था। अश्वत्थामा ने घटुक को निहत कर पृथ्वी पर गिरा दिया। घटुक की मृत्यु से पांडवों में शोक छा गया। परन्तु तभी श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि कहीं रणक्षेत्र में भी शोक किया जाता है। शोकमग्न न होकर तुम्हें उसका प्रतिशोध लेना चाहिए। 142 - संक्षिप्त जैन महाभारत

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