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रहित होकर अपने पार्थिव शरीर का त्याग कर दिया एवं स्वर्ग में जाकर आत्मिक सुखों का उपभोग करने लगे।
भीष्म पितामह के महाप्रयाण से कौरव एवं पांडव दोनों ही शोकाकुल हुए एवं उन्हें अश्रुजल समर्पित किया। ऐसा प्रतीत होता था कि भीष्म पितामह के महाप्रयाण की सूचनां पाकर शोकाभिभूत सूर्यदेव भी संपूर्ण रात्रिकाल में अश्रुधारा प्रवाहित करते रहे। इसीलिए उषाकाल में उनके नेत्र रक्तिम हो रहे थे। उन पवित्र आत्मा भीष्म पितामह की जय हो, जो आजन्म अटल ब्रह्मचारी रहे। जिनकी बुद्धि सदैव विशुद्ध रही । जिन्होंने धर्म पालन की कठोर प्रतिज्ञा में अपनी आत्मा को सुसंयत बनाया और अंत में पंचम ब्रह्म स्वर्ग को प्राप्त किया ।
प्रात:काल हुआ। सभी सुभट नित्य कर्म से निवृत होकर समर क्षेत्र में एकत्र हो गये। कौरवों ने भीष्म पितामह की अंतिम सीख पर भी ध्यान नहीं दिया और उन्होंने समय पर युद्ध घोष कर दिया। पांडव पक्ष के लोग भी यह घोष सुनकर युद्ध क्षेत्र में पहुँच गये। शल्य पुत्र विश्वसेन ने आकर अभिमन्यु से युद्ध करना प्रारंभ कर दिया। कुछ ही क्षणों में अभिमन्यु ने विश्वसेन के सारथी को निहित कर दिया। इस पर शल्य पुत्र स्वयं रथ का संचालन कर युद्ध करने लगा। परन्तु कुछ ही समय के पश्चात् अभिमन्यु ने शल्य पुत्र विश्वसेन का भी वध कर दिया। तत्पश्चात एक अन्य वीर लक्ष्मण आकर अभिमन्यु से युद्ध करने लगा। किन्तु वह भी अभिमन्यु के हाथों शीघ्र ही मारा गया। अभिमन्यु ने इस दिन भयानक बाण वर्षा कर चौदह हजार सैनिकों का संहार किया। अभिमन्यु की सामरिक निपुणता अद्भुत थी। कौरव सेना पलायन करने लगी। यह देखकर दुर्योधन ने आकर अपने सैनिकों को आश्वस्त कर उन्हें प्रोत्साहित किया। गुरु द्रोणाचार्य एवं कर्ण भी संग्राम में प्रवृत हो गये। जिससे कौरव सेना का मनोबल बढ़ गया। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों की सेनायें पूरे जोश के साथ आपस में युद्ध करने लगीं । अभिमन्यु अभी भी अद्भुत रणकौशल प्रदर्शित कर रहा था।
संक्षिप्त जैन महाभारत 133