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निवेदन किया। पर कर्ण ने गंभीर विचार मंथन के बाद अपने स्वामी दुर्योधन का कार्य छोड़कर भाइयों के कार्य में सहयोग को नकार दिया। वह बोला कि युद्ध-स्थल से हटना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसा करना अपने स्वामी के साथ विश्वासघात होता है व निदंनीय भी। परन्तु हां मैं युद्ध के पश्चात् पांडवों को उनका न्यायोचित राज्याधिकार अवश्य कौरवों से दिलवा दूंगा। इतना कहकर कर्ण ने माँ कुन्ती व दूत को आदर के साथ विदा कर दिया।
तत्पश्चात वह दूत जरासंध से श्रीकृष्ण का संदेश कहने लगा कि आप यादव नरेशों के प्रति अत्याचार का निश्चय त्याग कर उनके साथ दृढ़ संधि कर लें। क्या आपको भगवान नेमिप्रभु की वाणी पर विश्वास नहीं कि इस युद्ध में आप निश्चित ही श्रीकृष्ण के हाथों, गांगेय शिखंडी के हाथों व गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन के हाथों परलोक को प्राप्त करेंगे। इस प्रकार जरासंध को सावधान कर वह दूत श्रीकृष्ण के पास चला गया व उनको बतलाया कि जरासंध की पूरी सेना कुरुक्षेत्र में युद्ध को तत्पर है। वे संधि करने को बिल्कुल भी राजी नहीं हैं।
उधर जरासंध को युद्ध के मोर्चे पर जाते समय पराजय सूचक अनेक अपशगुन हुए, जिससे दुर्योधन जैसे वीर भी थोड़े विचलित से हो गये। पर मंत्रियों से मंत्रणा के बाद सभी एकजुट होकर युद्ध को तत्पर हो गये। तब शीघ्र ही जरासंध ने युद्ध के लिए रणभेरी बजवा दी। जरासंध की सेनाओं के कुशल राजाओं ने एक विशाल चक्रव्यूह की रचना की; जिसमें गोल आकार में 1000 आरे थे। प्रत्येक आरे में एक-एक नरेश 200 हाथियों, 2000 रथों, 5000 घोड़ों व 16000 पद सैनिकों का मालिक था। चक्र की धुरी के पास 6000 राजा सेना सहित नियुक्त किय गये थे; जिसके मध्य में जरासंध व कर्ण जैसे 5000 बलशाली नरेश स्थित थे। 50-50 नरेश धुरा की संधियों पर नियुक्त किये गये थे। व्यूह के बाहर भी व्यूह रचना की गई थी।
जब वसुदेव को पता चला कि जरासंध ने चक्रव्यूह की
122 - संक्षिप्त जैन महाभारत