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उस ब्राह्मण की टांग पकड़कर उसे रास्ते से अलग करना चाहा, तो बलदेव उस ब्राह्मण का पैर भी न हिला सके। इस प्रकार प्रद्युम्न लंबे समय तक वहां क्रीड़ा करते रहे व रूक्मणि का दिल जीतने का प्रयास करते रहे।
उसी समय प्रद्युम्न के वापिस आने के जो चिन्ह नारद ने रूक्मणी को बतलाये थे । वे चिन्ह रूक्मणी को प्रत्यक्ष दिखने लगे। जिससे उसके स्तनों से दूध की धारा झरने लगी। उसी समय प्रद्युम्न ने अपना असली रूप प्रकट कर दिया और माता रूक्मणि के चरणों में लेट गया। अपने पुत्र को इस रूप में देखकर रूक्मणि भाव विभोर हो गई और उसकी आंखों से प्रेमाश्रु टपकने लगे। उसने भावपूर्ण आंसुओं से सिंचित होकर अपने पुत्र को उठाकर अपनी छाती से लगा लिया व बोलीधन्य है वह कनकमाला जिसने तेरी बाल क्रीड़ा देखी है। माता के मुख से इस प्रकार के वचन सुनकर प्रद्युम्न तुरंत बालक बन गया व माता के साथ बालोचित क्रीड़ायें करने लगा। जिससे माता रूक्मणि का हृदय आनंद से भर गया। तब उसने खेल-खेल में ही माँ रूक्मणि को अपनी भुजाओं से ऊपर उठा लिया व विमान में पहले ही बैठे नारद व उदधि कुमारी के पास भेज दिया व बोला कि द्वारिका के यादवो ! मैं रूक्मणि का हरण कर ले जा रहा हूं। किसी की भुजाओं में शक्ति हो तो वह रोक ले ।
तब रूक्मणि का हरण जानकर समस्त यादव व भारी यादव सेना युद्ध हेतु वहां उपस्थित हो गई। यह देखकर प्रद्युम्न की मायावी सेना उन भारी यादवों की सेना में भिड़ गई। प्रद्युम्न आकाश में स्थित कृष्ण के साथ युद्ध करने लगा। पर जब कृष्ण के अस्त्र कौशल को प्रद्युम्न ने परास्त कर दियाः तो फिर दोनों के बीच भुजाओं से युद्ध होने लगा। दोनों के बीच भीषण बाहुबल युद्ध हुआ । परन्तु इसी बीच रूक्मणि के द्वारा प्रेरित नारद ने दोनों को पिता-पुत्र के बीच का युद्ध बताकर युद्ध में उपस्थित लोगों को आश्चर्य में डाल दिया और दोनों के बीच के युद्ध को रोक दिया। यह जानकर कि यही मेरा अग्रज पुत्र प्रद्युम्न है, प्रद्युम्न को अपने सामने
संक्षिप्त जैन महाभारत 113