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कुरूक्षेत्र का युद्ध - महाभारत उत्तर पुराण के अनुसार एक समय की घटना है कि मगध देश के कुछ व्यापारी रास्ता भटक कर जल मार्ग के रास्ते द्वारावती नगरी पहुँचे व वहां का वैभव देखकर आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने वहां से अनेक रत्न खरीदे व अपने नगर राजगृह रवाना हो गये। परन्तु पांडव पुराण एवं हरिवंश पुराण के अनुसार द्वारिका के कुछ वणिक भगवान नेमिनाथ के जन्मोत्सव के पूर्व इन्द्रों द्वारा 15 माह तक की गई दैवीय रत्नों की वर्षा के कुछ रत्न लेकर जरासंध के पास भेंट करने जा पहुंचे। उन वणिकों ने जरासंध की भूरि-भूरि प्रशंसा कर कहा कि वहां नेमिप्रभु के संग नारायाण श्रीकृष्ण राज्य करते हैं। उन्होंने द्वारिका के यादवों, समुद्रविजय, श्रीकृष्ण, नेमिनाथ आदि के महात्म्य की महाराज जरासंध से विस्तार से चर्चा की व शत्रुओं से अलंघ्य द्वारावति नगरी के बारे में विस्तार से बतलाया। वे बोले- बारह योजन लंबी व नौ योजन चौड़ी द्वारावति नगरी समुद्र के बीच में स्थित है। इस नगरी का वैभव अवर्णनीय है। _ अपने प्रबल शत्रु यादवों का उत्कर्ष सुनकर वह अपने को संयत न रख सका व क्रोधायमान होकर अपने मंत्रियों से पूछा कि यादव शत्रु आज तक उपेक्षित कैसे रहे? हमारे गुप्तचर आज तक क्या करते रहे? यह दुष्ट यादव मेरे जमाई कंस व भाई अपराजित को मारकर कैसे समृद्धि हो प्राप्त हो गये। तब मंत्री समूह ने एक स्वर से कहा कि सब कुछ जानते हुए भी हम इसीलिए चुप रहे क्योंकि यादव कुल में जन्में तीर्थंकर नेमिनाथ, नारायण श्रीकृष्ण व बलदेव को देवता भी जीतने में समर्थ नहीं हैं। महातेजस्वी पांडव व विवाह संबंधों के कारण अधिकांश विद्याधर उनके पक्ष में हैं। तीन करोड़ पचास लाख यादव कुमार महा बलवान हैं। अतः हम सोचते रहे कि वे वहां और हम यहां सुख से रहें। हां, यदि आपके इस अवस्था में रहते हुए भी वे प्रतिकार करें तो ही उनके साथ युद्ध करना उचित है। 118 - संक्षिप्त जैन महाभारत