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कृष्ण-दूत का दुर्योधन के पास जाना व
विदुर की मुनि दीक्षा
द्वारिकापुरी में रहते हुए पांडवों को अनेक दिन हो गये; तब एक दिन अर्जुन ने नीतिशास्त्र में निपुण श्रीकृष्ण से कहा कि कौरवों ने हमें लाक्षागृह में रहने को भेजा व बाद में उसमें आग लमवाकर हम सभी को मारने का प्रयास किया। फिर भरी सभा में द्रौपदी के केश पकड़कर बलात महल से बहिष्कृत कर दिया व हम सबका घोर अपमान किया। तब कृष्ण ने पांडवों से सलाह मसविरा कर एक चतुर दूत को हस्तिनापुर भेजा। उस दूत ने दुर्योधन के पास जाकर निवेदन किया कि हे महाराज! मैं द्वारिकापुरी से आया हूँ। पांडव अजेय हैं; आप उन्हें क्यों कष्ट दे रहे हैं।
आपको स्मरण रखना चाहिए कि उनके पक्ष में नारायण, विश्वविश्रुत महाराजा विराट, द्रुपद, विघ्ननिवारक प्रलंब, दशार्ण गण, प्रद्युम्न आदि बड़े-बड़े नृपति हैं, अतः आप कैसे सत्ता सुरक्षित रख सकेंगे। इसलिए आप मान-अपमान का त्याग करके, कपट भाव को तिलांजलि देकर पांडवों के साथ संधि कर लें व राज्य को परस्पर आधे-आधे भागों में बांटकर शान्तिपूर्वक उसका उपभोग करें। दूत के ये वचन सुनकर कौरवों ने महामंत्री बिदुर से परामर्श मांगा। तब बिदुर ने दुर्योधन से कहा कि महाराज! सुख धर्म से प्राप्त होता है। धर्म आत्मा की विशुद्धि को कहते हैं। अतः क्रोध, लोभ व गर्व का त्याग करके पांडवों को निमंत्रित करके उनका न्यायोचित आधा राज्य उन्हें दे देना चाहिए। विदुर के ये वचन सुनकर दुर्योधन भड़क उठा व बोला- आप पांडवों का पक्ष लेकर हमारे ही साथ अन्याय करना चाहते हैं। दुर्योधन ने विदुर से ऐसा कहकर कृष्ण के दूत को भगा दिया। दूत ने वापिस आकर कृष्ण व पांडवों से कहा-महाराज कौरव बड़े क्रूर व पापी हैं। वे
116. संक्षिप्त जैन महाभारत