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गया व अर्जुन से कुछ मांगने को कहा। तब अर्जुन ने उससे उसका सारथी बन जाने के लिए निवेदन किया व उस दिव्य पुरुष से उसका परिचय जानना चाहा; तब वह बोला कि मैं विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी के इन्द्र का सेवक हूँ। मेरे पिता का नाम विशालाक्ष है व मेरा नाम चंद्रशेखर है। हमारे पालक इन्द्र को शत्रु सताने लगे थे; अतः एक निमित्त ज्ञानी ने मुझे बताया था कि जो व्यक्ति कालिंजर के पास स्थित मनोहर नाम के पर्वत पर तुम्हें युद्ध में परास्त कर देगा। वही इन्द्र के शत्रुओं का नाश करने में समर्थ होगा। आज पुण्य योग से ऐसा हो गया है; अतः आप मेरे साथ विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी स्थित हमारे मालिक व रथनुपूर नरेश इन्द्र के पास चलकर उनका उपकार करने का कष्ट करें।
दिव्य पुरुष का रूप धारण किए उस चंद्रशेखर के निवेदन पर पार्थ अर्जुन उस विद्याधर के विमान पर सवार होकर उसके साथ रथनूपुर आ गये। यहां पर इन्द्र ने इन दोनों का राजकीय सम्मान के साथ स्वागत किया व अर्जुन को ससम्मान अपने महलों में रूका लिया। कुछ समय बाद इन्द्र के शत्रुओं ने इन्द्र पर आक्रमण कर दिया। शत्रु का सामना करने के लिए अर्जुन ने इन्द्र को सारथी बनाया। वह रथ पर सवार होकर शत्रु दल की सेना पर टूट पड़ा तथा अपने दिव्य अस्त्रों की सहायता से अर्जुन ने शीघ्र ही शत्रु दल को परास्त कर दिया व इन्द्र को शत्रुओं से रहित कर दिया। बाद में विद्याधरों के अनुरोध पर अर्जुन वहां 5 वर्ष तक रहे; यहीं चित्रांगद आदि 100 शिष्यों को अर्जुन ने स्नेह पूर्वक प्रशिक्षण दिया व उन सबको अपना परम भक्त बना लिया। इस बीच शेष पांडव व द्रौपदी अर्जुन के वियोग में काफी दुखी रहे व अर्जुन की तलाश में भटकते रहे। पर अर्जुन 5 वर्ष रथनूपुर में व्यतीत कर जब अपने शेष भाइयों से आकर मिले, तो सभी अति प्रसन्नता को प्राप्त हुए। अर्जन व द्रौपदी का 5 वर्ष बाद पुनर्मिलन हुआ।
एक दिन दुर्योधन को अपने जासूसों से मालूम चला कि पांडव बंधु सहाय वन में ठहरे हैं। तब दुर्योधन ने कपट पूर्वक पांडवों को मारने की सोची। तभी नारद अर्जुन के शिष्य
संक्षिप्त जैन महाभारत.99