________________
साथ छोड़कर दोनों के मध्य युद्ध छिड़ गया। अंत में द्रोणाचार्य को पराजित होकर युद्ध-स्थल का परित्याग करना पड़ा। तब द्रोण पुत्र अश्वत्थामा पार्थ से भिड़ गया। इसी बीच वीभत्स ने आकर अश्वत्थामा के रथ के घोड़ों को यमलोक पहुँचा दिया। पर शीघ्र ही अश्वत्थामा ने पार्थ के गांडीव की प्रत्यंचा छिन्न-भिन्न कर दी जिससे क्रोधित होकर पार्थ ने ऐसा बाण छोड़ा कि अश्वत्थामा मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तब पार्थ व राज बिंदु के बीच भीषण युद्ध हुआ व पार्थ ने राज बिंदु के हस्ती, अश्व, रथ सहित उसकी सारी सेना को ध्वस्त कर दिया।
इस वीभत्स नरसंहार के दृश्य को देखकर पार्थ को अतीव विषाद हुआ, उसने सोचा कि अब किसी भी प्रकार की कोई हिंसा योग्य नहीं है। अतः उसने कौरव सेना के ऊपर सम्मोहन बाण चलाया। इस बाण से कौरव दल की सेना संज्ञा शून्य होकर मूर्छित हो गई एवं धराशायी हो गई। पार्थ को विजय श्री हाथ लगी। जब यह सूचना विराट नरेश के पास पहुँची तो विराट नगर में उत्सव का माहौल हो गया व नगर में विजय उत्सव मनाया गया। जब कौरवों व उनकी सेना को होश आया तो वे लज्जित होकर हस्तिनापुर को वापिस हो गये। यहां राजा विराट पांडवों को पहचान गये व पांडवों से नौकरों जैसा काम लेने के लिए उनसे क्षमा याचना करने लगे। बाद में राजा विराट ने अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से करने का निवेदन किया। किन्तु अर्जुन ने कहा कि आप हमारे शिक्षा गुरु हैं, अतः मेरे लिए आपकी पुत्री से विवाह करना उचित नहीं है। तब सभी की सहमति से धार्मिक अनुष्ठान व राजकीय समारोह पूर्वक राज- कन्या का विवाह अर्जुन पुत्र अभिमन्यु से कर दिया गया। इस विवाह समारोह में बलभद्र, नारायण, भानु, द्रष्टद्युम्न, शिखंडी आदि महापुरुष भी विराट नगर पधारे थे। विवाह पश्चात् विराट नरेश ने यथोचित सत्कार, मान-सम्मान कर राजकीय बहुमूल्य भेंटों के साथ सभी को विदा किया। बाद में सभी पांडव श्रीकृष्ण व बलदेव के साथ द्वारिकापुरी आ गये।
106. संक्षिप्त जैन महाभारत