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द्यूत-क्रीडा में पाण्डवों की हार
तथा द्रौपदी चीरहरण
एक बार दुःशील दुर्योधन ने पांडवों को अपने यहां आमंत्रित कर उन सभी का यथोचित सत्कार किया व स्नेह पूर्वक कहा कि आइये- मेरा मन अस्थिर हो रहा है। अतः कुछ समय के लिए द्यूत क्रीड़ा की जाए। युधिष्ठिर दुर्योधन के कपट को समझ नहीं पाये व द्यूत क्रीड़ा हेतु बैठ गये। पांसें फेंके जाने लगे, परन्तु पांसें केवल कौरवों के ही पक्ष में पड़ रहे थे। तब भीम जिज्ञासु होकर पांसों को देखने लगा। जिससे अब पांसें कभी-कभी युधिष्ठिर के अनुकूल भी पड़ने लगे। कौरवों ने अपनी पराजय होती देखकर भीम को इसका कारण मानकर किसी बहाने उसे बाहर भेज दिया। तब कुछ ही क्षण में कपट से कौरवों ने युधिष्ठिर को हरा दिया व उनसे उनका सब कुछ छीन लिया।
युधिष्ठिर चूत क्रीड़ा (जुएं) में अपना सभी राजपाट तक हार गये। इसके बाद युधिष्ठिर ने अपनी महिषियों व भ्राताओं को भी दांव पर लगा दिया। तभी भीम पुनः वहां आ गया व अपने बड़े भाई से निवेदन किया कि यह व्यसन सर्वनाश करने वाला है। द्यूत क्रीड़ा से बढ़कर पातकी व्यसन संसार में दूसरा नहीं है। यह सब अनर्थों का मूल है। पर इसी बीच कौरवों ने पांसे फेंके व युधिष्ठिर स्वयं के साथ अपनी महिषियों व भाइयों को भी हार गया। सर्वस्व हार चुकने के बाद द्यूतक्रीड़ा समाप्त हो गई व युधिष्ठिर अपने महलों में चले गये। ___तभी दुर्योधन के दूत ने युधिष्ठिर के पास आकर कहा कि
आप अपना सर्वस्व हार गये हैं। अतः वचनानुसार आप सभी पांडव बारह वर्ष के लिए अपना राजपाट छोड़कर अपने-अपने राज्यों से बाहर जाकर वन में वास करें। वहां भी आपको छदम वेश में रहना होगा। यदि इस अवधि में आपको किसी ने पहचान लिया, तो पुनः आपको बारह वर्ष और वनवास/अज्ञातवास में रहना पड़ेगा। अतः आप शीघ्र ही अज्ञातवास करें।
जब पांडव अज्ञातवास की तैयारी कर रहे थे तभी अकस्मात्
संक्षिप्त जैन महाभारत - 97