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आश्चर्य में पड़ गये एवं कह उठे-पांडव ही इस समर भूमि में हमारे विरूद्ध वीरतापूर्ण युद्ध कर रहे हैं। ऐसा रण-कौशल अन्य में हो ही नहीं सकता। यह मेरी अंतरात्मा कह रही है। वे लाक्षागृह से बच निकले होंगे। यह सुनते ही दुर्योधन भयभीत हो गया व द्रोणाचार्य से कहने लगा कि वर्षों पूर्व मृत लोग भी क्या जीवित हो सकते हैं? तब द्रोणाचार्य स्वयं युद्ध में शामिल हो गये। गुरु द्रोण को सामने देखकर अर्जुन ऊहापोह में पड़ गया, पर अंत में सात कदम आगे बढ़कर गुरु द्रोणाचार्य को नमन कर बाण में लगाकर एक पत्र भेजा। जिसमें उसने स्वीकार किया कि वह कुन्ती पुत्र अर्जुन ही है
और आपका परम शिष्य है। कौरवों ने तो हमें नष्ट करने का पूरा प्रयास किया पर दैवयोग से हम लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ सके। आपसे अनुरोध है कि आप युद्ध से अलग होकर केवल युद्ध देखें व कौरवों को अपने किये का फल भुगतने दें।
94. संक्षिप्त जैन महाभारत