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एकलव्य की गुरु भक्ति
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कई दिनों के पश्चात् एक दिन अर्जुन धनुष बाण के साथ वन में विचरण कर रहे थे; तब उन्होंने एक विकराल श्वान को देखा। उस श्वान का जबड़ा बाणों से भरा था। यह दृश्य देखकर अर्जुन सोच में पड़ गया कि ऐसा कौन धनुर्धर है, जिसने अपनी विलक्षण प्रतिभा से श्वान का मुख अबरुद्ध कर दिया है। निश्चय ही वह अद्वितीय धनुर्धर शब्दभेदी बाण का ज्ञाता होगा। पर यह कला तो गुरु जी ने केवल मुझे सिखाई है। इसी खोज में अर्जुन गहन वन की ओर चला गया। काफी दूर जाने पर अर्जुन को धनुष बाणों के साथ एक भील पुत्र दिखाई दिया। अर्जुन ने उसका परिचय पूछा। तो वह भील पुत्र बड़े ही अभिमान के साथ बोला- हे आर्य पुत्र ! मैं धनुर्धारियों को भय व अन्य को प्रसन्नता प्रदान करने वाला एक भील पुत्र हूँ व शब्दभेदी वाणों का भी सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकता हूँ ।
तब अर्जुन ने उस भील बालक से पूछा कि क्या आपने ही एक श्वान के मुख को वाणों से भर दिया था। क्या आपकी बाण विद्या की ही यह अपूर्व चमत्कृति थी। तब उस वीर भील बालक ने स्वीकारते हुए कहा कि हां। तब अर्जुन ने उस भील बालक से पुनः प्रश्न किया कि ये विद्या आपने किससे सीखी है। तब उस भील बालक ने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया कि आप महा धनुर्धर एवं बाण विद्या में सिद्धहस्त आचार्य श्री द्रोणाचार्य से तो अवश्य परिचित होंगे। वही मेरे सदगुरु हैं। उस भील बालक के वचन सुनकर अर्जुन आश्चर्य में पड़ गये व सोचने लगे कि इस असभ्य भील बालक के गुरु द्रोणाचार्य हो ही नहीं सकते। तब अर्जुन ने उस बालक से कहा कि वे तो हमेशा हमारे साथ रहते हैं । वे आपके गुरु कैसे हो सकते हैं। तब वह भील बालक बोलामेरे निवास के पास ही एक बहुत सुन्दर स्तूप है; उसे ही मैंने द्रोणाचार्य गुरु मानकर इस विद्या में महारथ हासिल की है। ऐसा कहकर वह बालक अर्जुन को उस स्तूप के पास ले
60 संक्षिप्त जैन महाभारत