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दृष्टि पैरों के पास खड़े रूक्मणी के सेवकों पर पड़ी। उन सेवकों से पुत्र प्राप्ति का समाचार सुनकर श्री कृष्ण ने उन्हें अपने शरीर के आभूषण भेंट में दे दिये। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने रूक्मणी के पुत्र को पहले जन्मा मान लिया। तभी बाद में सिरहाने खड़े सत्यभामा के सेवकों ने भी श्रीकृष्ण को पुत्र जन्म की बधाई दी। श्रीकृष्ण ने उन्हें भी पुरस्कृत किया।
एक दिन कभी धूमकेतु नाम का बलवान असुर विमान से कहीं जा रहा था कि उसका विमान रूक्मणी के महल के ऊपर जाकर स्थिर हो गया। उस असुर ने अपने विभंगावधि ज्ञान से अपने पूर्व भव के बैरी को यहां जानकर, विमान से उतर कर सभी को निद्रा मग्न कर रूक्मणी के पुत्र का हरण कर लिया। जब उसका विमान एक अटवी से गुजर रहा था, तो वह नीचे उतरा व वहां तक्षशिला के नीचे शिश को रखकर अदृश्य हो गया। उसी समय मेघकूट नगर नरेश कालसंवर अपनी पत्नी कनकमाला के साथ विमान से कहीं जा रहे थे तो उस शिला के ऊपर उनका विमान रूक गया। नीचे उतरने पर उन्होंने उस हिलती हुई भारी शिला को देखा व जब उस शिला को हटाया; तो उन्होंने वहां पर एक सुन्दर बालक को पाया।
उस कालसंवर नाम के विद्याधर ने उस बालक को उठाकर अपनी निःसंतान पत्नी कनकमाला की गोद में दे दिया। पर कनकमाला ने अपने हाथ खींचते हुए कहा कि आपके उत्तम कुल में 500 पुत्र हैं; जब वे इस अज्ञात कुल में जन्मे पुत्र की हंसी उड़ावेंगे, तो मैं उस दृश्य को देख नहीं सकेंगी। तब कालसंवर ने कान का स्वर्ण पत्र लेकर- 'यह युवराज है' ऐसा कहकर पट्ट बांध दिया। तब कनकमाला ने उस पुत्र को सहर्ष स्वीकार कर लिया व वह अति प्रसन्नता को प्राप्त हुई। बाद में कालसंवर ने अपने नगर जाकर प्रजाजनों को यह बतला दिया कि गूढ गर्भ को धारण करने वाली कनकमाला ने इस पुत्र को जन्म दिया है। उसके बाद उसने बड़ी धूमधाम से उस पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। नामकरण संस्कार के अवसर पर रूक्मणी के इस पुत्र का
समित जैन मलयात.n