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नाम प्रद्युम्न रखा गया । प्रद्युम्न धीरे-धीरे वहां वृद्धि को प्राप्त होने लगा।
जब रूक्मणी को पुत्र के हरण का पता चला तो वह अति विलाप करने लगी। इससे महलों में कोलाहल मच गया। इसे सुनकर श्रीकृष्ण वहां आये व रूक्मणी को ढांढस बंधाते हुए बोले कि मैं तेरे पुत्र को शीघ्र ही खोज लूंगा। तभी नारद वहां पहुँचे व रूकमणी के पुत्र हरण का समाचार सुनकर उसे ढांढस बंधाया व बोले कि अब अवधिज्ञानी अतिमुक्तक मुनि श्री तो मोक्ष जा चुके हैं। तीन ज्ञान के धारी नेमिनाथ कुछ बोलेंगे नहीं; अतः मैं पूर्व विदेह की पुष्कलावती देश की पुंडरीकनी नगरी में मनुष्य, सुर व असुरों से सेवित सीमंधर जिनेन्द्रदेव से पूछकर तेरे पुत्र का पता लगाकर बताऊंगा। अतः तुम शोक को छोड़कर धैर्य धारण करो। ऐसा कहकर नारद पुंडरीकनी नगरी में विराजमान सीमंधर स्वामी के समवशरण में जा पहुँचे ।
वहां केवलज्ञान के धारी तीर्थंकर सीमंधर स्वमी से यह जानकर कि 16वां वर्ष आने पर 16 लाभों को प्राप्त करके वह प्रद्युम्न नाम का बालक अपने माता-पिता से स्वतः पुनः आकर मिलेगा। तीर्थंकर भगवान के मुख से यह सुनकर आनंद से भरे नारद उन केवली भगवान को नमस्कार कर शीघ्र ही मेघकूट नगर आ गये तथा वहां रूक्मणी पुत्र प्रद्युम्न को देखकर वे अति प्रसन्न हुए। वहां कालसंवर आदि ने नारद का सम्मान कर उन्हें विदा किया। वहां से चलकर नारद शीघ्र ही द्वारिका आ पहुँचे व वहां कृष्ण के साथ संपूर्ण यादव नरेशों को प्रद्युम्न की पूरी कथा कहकर सबको प्रसन्न कर दिया। उन्होंने रूक्मणी को भी पूरा वृतांत बतलाकर खुश किया व कहा कि तेरा पुत्र प्रद्युम्न 16वें वर्ष में 16 लाभों को प्राप्त करके स्वतः आपके पास आवेगा। यह सुनकर पुत्र मोह के कारण रूक्मणी के स्तनों से स्वत: दूध झरने लगा। बाद में रूक्मणी ने नारद का सम्मान कर उन्हें आदर के साथ विदा किया।
श्रीकृष्ण की दूसरी रानी सत्यभामा के पुत्र का नाम
78 ■ संक्षिप्त जैन महाभारत