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साथ ही अत्यन्त रूपवान भी था। अश्वत्थामा ने कौरवों व पांडवों के साथ अपने पिता से शस्त्र-विद्या सीखीं थीं; किन्तु अर्जुन गुरु भक्त था। उसकी दृढ़ निश्चयी गुरु भक्ति प्रशंसनीय थी। इसलिए द्रोणाचार्य ने अपनी संपूर्ण शस्त्र विद्यायें अर्जुन को प्रदान कर दी थी। एक बार कौरव तथा पांडवों को लेकर धनुर्विधा की परीक्षा हेतु द्रोणाचार्य उन्हें वन में ले गये व एक पेड़ पर बैठे कौएं की दाहिनी आंख भेदने को सभी से कहा। पर सभी के मौन रहने पर स्वयं द्रोणाचार्य ने उसकी आंख भेदने के लिए लक्ष्य किया। तभी अर्जुन ने विनम्रता से अपने गुरु से निवेदन किया कि हे आचार्य विशारद! आपका ऐसे सामान्य लक्ष्य को वेधना दीपक के सहारे सूर्य को ढूंढने के प्रयास जैसा है। यदि आप आज्ञा दें तो मैं यह कार्य कर सकता हूँ। तब अर्जुन ने गुरु आज्ञा पाकर चंचल कौएं के चंचल नेत्रों को बेधने हेतु एकाग्रचित्त होकर बाण छोड़ दिया। बाण सटीक निशाने पर लगा। तब सभी ने अर्जुन की धनुर्विधा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। अर्जुन के इस प्रबल पराक्रम को देखकर कौरवों का हृदय अवश्य क्षुब्ध हो गया।
संक्षिप्त जैन महाभारत.59