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नंदगोपाल से कहा कि इसे अपना पुत्र ही समझना । इसको पाल पोषकर बड़ा करना व इस रहस्य को रहस्य ही रहने देना।
इतना कहकर बलदेव व वसुदेव उस नवजात पुत्री को लेकर शीघ्रता से कंस के महलों में वापिस आ गये व उस पुत्री को देवकी के पास लिटा दिया। उधर नंद गोपाल ने उस पुत्र को लेकर अपनी पत्नी यशोदा की गोद में रखते हुए कहा कि इस चक्रवर्ती पुत्र को सम्हालो। यह सुनकर जसोदा / यशोदा अत्यन्त प्रसन्न हो गई व उस पुत्र का पालन पोषण करने लगी। प्रातः होने पर देवकी की प्रसूति की बात सुनकर कंस देवकी के पास आया, पर देवकी की गोद में पुत्री को देखकर उसका क्रोध चला गया। फिर भी उसने उस कन्या को उठाकर हाथ से मसलकर उसकी नाक चपटी कर दी व यह सोचकर कि अब देवकी के पुत्र नहीं होंगे; अपने मन में संतुष्ट होकर अपने निवास को चला गया। उधर यशोदा ने जात संस्कार कर उस बालक का नाम श्रीकृष्ण रख दिया। वहां की गोपिकायें कृष्ण की असीम सुंदरता को निहारने हेतु उस बालक को अपना दूध पिलाने के बहाने टकटकी लगाकर देखती थी।
कृष्ण धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे। वह अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि वाले थे व किशोरावस्था में ही सर्व विद्याओं में परांगत हो गये थे। तभी अकस्मात् मथुरा में उपद्रव बढ़ने लगे। तब एक निमित्त ज्ञानी से पूछने पर उन्होंने मथुरा नरेश कंस को बतलाया कि तुम्हारा शत्रु पैदा होकर कहीं पर बढ़ रहा है। यह सुनकर कंस चिंता में पड़ गया। तब कंस ने तीन दिन का उपवास रख कर पूर्व भव में सिद्ध हुए सात व्यंतर देवताओं का आहवान किया। तब उन देवी-देवताओं ने प्रकट होकर योग्य कार्य सौंपने हेतु कंस से निवेदन किया। उनका निवेदन सुनकर कंस ने उनसे कहा कि हमारा शत्रु कहीं उत्पन्न होकर बढ़ रहा है। तुम लोग उसकी खोज करके उसका अंत कर दो। तब उन देवियों ने कहा कि बलभद्र व नारायण को छोड़कर शत्रु को हम क्षण भर में नष्ट कर देंगे। यह सुनकर पूतना नाम की देवी ने विभंगावधि ज्ञान से कृष्ण को जान लिया। वह कृष्ण की माता का रूप धारण कर कृष्ण के पास जहरीला
संलिप्त जैन महाभारत 65