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के उपदेशों में निमग्न रहने लगे। धर्मराज युधिष्ठिर भी सदा धर्माचरण में लीन रहने लगे।
मुनिश्री की भविष्यवाणी सुनने के पश्चात् धृतराष्ट्र चिंतामग्न रहने लगे तथा संसार की असारता के बारे में सोचने लगे। उन्होंने ताऊ भीष्म पितामह/गांगेय को अपने पास बुलाकर मुनिराज की कही सभी बातें उन्हें बतला दी व कहा कि अब मुझे विरक्ति उत्पन्न हो रही है। दोनों की सलाह के पश्चात् धृतराष्ट्र ने अपने शतक पुत्रों एवं पांडवों को बुलवा लिया तथा गांगेय व द्रोणाचार्य के सामने उन सभी के सबल कंधों पर कुल के राज्य का भार सौंप दिया। इसके बाद धृतराष्ट्र अपनी माता सुभद्रा के संग वन गमन कर गये। वहां सुव्रत मुनि महाराज के सामने केशलोंच कर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इधर दुर्योधन व पांडु पुत्र मिलकर योग्यता पूर्वक राज्य का संचालन करने लगे। चारों ओर परम शान्ति थी।
पांडव प्रचंड तेजस्वी थे; इसलिए दुर्योधन आदि शस्त्र संचालन से संबंधित प्रतियोगिताओं में उनसे परास्त हो जाते थे। पांडवों की बार-बार विजय से दुर्योधन आदि कौरव अदंर ही अंदर पांडवों से ईर्ष्या करने लगे थे। पांडवों की विजय उन्हें असहय सी हो चली थी। दोनों के बीच विरोध का बीज अंकुरित होने लगा। कुछ समय पश्चात् कौरव उदंडता पर उतर आये तथा विरोध का वह बीज शत्रुता के बट वृक्ष के रूप में परिणत सा दिखाई देने लगा। दुर्योधन आदि राज्य के विषय को लेकर एक दूसरे के विरोधी से बनने लगे। तब इस द्वेष भाव को यहीं विनष्ट कर देने की अभिलाषा से गांगेय, विदुर, द्रोण, मंत्री शकुनी व दुर्योधन मित्र शषरोम आदि गुरुजनों व विद्वानों ने मध्यस्थता कर राज्य के दो बराबर भाग कर एक कौरवों को व दूसरा पांडवों को दे दिया। किन्तु कौरवों से पांडवों की खुशहाली देखी नहीं जा रही थी। जिससे ईष्यालु दुर्योधन आदि कौरव संधि में दोष निकलने लगे व कहने लगे कि राज्य के आधे भाग पर केवल पांच पांडव व शेष आधे भाग पर हम 100
56 - संक्षिप्त जैन महाभारत