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अपने पति पांडु के स्वर्ग गमन की सूचना प्राप्त होने पर कुन्ती भी गंगा तट पर आकर घोर विलाप करने लगी। कौरवों ने भी उसके इस दुःख में पूर्ण साथ दिया। समय बीतने पर धृतराष्ट्र निष्कंटक होकर हस्तिनापुर पर शासन करने लगे।
हरिवंश पुराण के अनुसार राजा धृतराज के भाई रूक्मण जिनका विवाह गंगा से हुआ था के पुत्र गांगेय/भीष्म पितामह थे। पितामह गांगेय/भीष्म पितामह की छत्रछाया में सभी कौरव व पांडव प्रसन्न थे। गुरु द्रोणाचार्य उनके सहायक व पथ प्रदर्शक थे। एक बार धृतराष्ट्र वन क्रीड़ा को गये। वहां उन्हें एक निग्रंथ मुनिराज के दर्शन हुए। राजा धृतराष्ट्र ने उन्हें नतमस्तक होकर प्रणाम किया। मुनिराज ने उन्हें धर्मवृद्धि का आशीर्वाद दिया। धृतराष्ट्र ने मुनि श्री के उपदेशों का लाभ लेने के पश्चात् मुनिराज से प्रश्न किया कि कुरू कुल के इस विशाल राज्य को मेरे पुत्र दुर्योधन आदि भोगेंगे अथवा मेरे भ्राता पांडु के पुत्र पांडव? मेरे दुर्योधन आदि एक शतक पुत्रों एवं पांचों पांडवों का उत्कर्ष-अपकर्ष भविष्य में कैसा होगा? करुणा कर यह बतलाने की कृपा करें।
तब मुनि श्री ने बतलाना शुरू किया कि मगध देश की राजगृही में जरासंध का राज्य है। वह शत्रुओं से अपराजित है। किन्तु इसी बीच धृतराष्ट्र ने पुनः प्रश्न कर दिया कि हे प्रभो! उसका मरण किस प्रकार होगा? तब मुनि श्री पुनः बोले कि तुम्हारे इस राज्य के कारण कौरवों व पांडवों में महा भयंकर युद्ध होगा। कुरुक्षेत्र के इस विशाल युद्ध में तुम्हारे समस्त पुत्र परास्त या निहत होंगे व पांडव हस्तिनापुर के राज सिंहासन पर बैठकर प्रजा का पालन पोषण करेंगे। इसी कुरुक्षेत्र में जरासंध से श्रीकृष्ण का युद्ध होगा व उन्हीं के हाथों जरासंध की मृत्यु होगी। मनि श्री के मुखारबिंद से यह सब सुनकर धृतराष्ट्र चिंतित हो उठा तथा मुनिश्री की वंदना कर हस्तिनापुर लौट आया । वहां से लौटने के पश्चात् धृतराष्ट्र की जीवन चर्या बदल गई। वह जिनागम
संक्षिप्त जैन महाभारत - 55