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आदि उसके अनेक पुत्र थे। जरासंध महापराक्रमी, विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी के विद्याधरों का अधिपति तथा पूर्व एवं पश्चिम समुद्री तटों का स्वामी था।
इसी समय शौर्यपुर के उद्यान में सुप्रतिष्ठ मुनिराज को केवलज्ञान हुआ। यह समाचार सुनकर अंधकबृष्टि राजा सेना सहित प्रजाजनों के साथ उनके धर्मोपदेश सुनने को गये। केवली भगवान ने विस्तार से धर्मसभा में उपस्थित जीवों को धर्म का मार्ग बतलाया। उन्होंने अंधकबृष्टि के पूछने पर उनके पूर्व भव बतलाये। उनके दसों पुत्रों के भी पूर्व भवों का वर्णन किया। प्रवचन के उपरांत सभी अपने-अपने स्थानों को चले गये। तब अंधकबृष्टि ने संसार से विरक्ति के पहले समुद्रविजय का राज्याभिषेक किया। वसुदेव आदि को उनके पादमूल में सौंपा। तत्पश्चात सुप्रतिष्ठ केवली की शरण में जाकर मुनिधर्म अंगीकार कर लिया। इसके बाद मथुरा के शासक भोजकवृष्टि ने भी मथुरा के शासन का भार उग्रसेन को सौंप दिया व उन्होंने भी मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। समुद्रविजय की पटरानी का नाम शिवादेवी था; जो अत्यन्त शीलवान व गुणवान थी। उनके भाइयों में अक्षोम्य की रानी का नाम धृति, स्तमित सागर की स्वयंप्रभा, हिमवान की सुनीता, विजय की सीता, अचल की प्रियलामा, धारण की प्रभावती, पूरण की कालिंगी व अभिचंद्र की रानी का नाम सुप्रभा था। इन सभी का विवाह समुद्रविजय ने करवाया था।
समुद्रविजय के सबसे छोटे भाई वसुदेव कामदेव के समान सुन्दर थे। छोटे होने के कारण वे प्रतिदिन स्वेच्छा से गंधवारण हाथी पर सवार होकर नगर के बाहर जाते थे। चतुरंगणी सेना उनके साथ रहती थी। वे अति सुन्दर होने पर भी अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित उनका शरीर अप्रतिम सौंदर्य युक्त हो जाता था। जब वे बाहर निकलते, तो नगर की स्त्रियां उन्हें देखकर अपना काम भूल जाती थी व किसी के मना करने पर भी वे वसुदेव को देखे बिना नहीं मानती थी। उन्हें देखकर स्त्रियों में आकुलता उत्पन्न हो
संक्षिप्त जैन महाभारत. 33