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उसका हरण कर लिया। रास्ते में उसे मानसवेग नाम का विद्याधर मिला। उसने मार डालने हेतु वसुदेव को मानसवेग को सौंप दिया। इसी बीच वसुदेव घास की गंजी पर नीचे गिर गये। जहां जरासंध का यशोगान सुनकर वह जान गये कि यह राजगृह नगर है। यहां पर वसुदेव ने जुए में एक करोड़ स्वर्ण मुद्रायें जीतीं तथा दानी बनकर वहीं सबको बांट दी। इसके कुछ समय पूर्व ही निमित्त ज्ञानियों ने जरासंध को बतलाया था कि जो जुए में एक करोड़ स्वर्ण मुद्रायें जीतकर बांट देगा; उसका पुत्र ही तुम्हारा बध करेगा। यह जानकर कि यही वसुदेव है; जरासंध के सैनिकों ने वसुदेव को पकड लिया एवं चमड़े की भातड़ी में बांधकर उसे पहाड़ की चोटी पर ले जाकर नीचे फेंक दिया, ताकि वसुदेव का प्राणांत हो जावे। पर विद्याधरी वेगबती ने जो वसुदेव की पत्नी थी, उन्हें बीच में ही थाम लिया। उस बीच वसुदेव सोचते हैं कि जीव अकेला ही इस संसार में जन्म व मरण कर सुख-दुःख भोगता है; किन्तु फिर भी आत्मीयजनों के संग्रह करने में लिप्त रहता है। अतः वे ही धीर, वीर व सुखी हैं, जो भोगों को छोड़कर आत्महित हेतु मोक्षमार्ग में स्थित होते हैं। तभी वेगबती ने पर्वत तट पर भाथड़ी से वसुदेव को बाहर निकाला, तब वे दोनों परस्पर प्रेमपूर्वक एक दूसरे से मिले। फिर वेगबती ने उनके हरण के बाद अपने दुखों का वर्णन वसुदेव से किया व कहा कि मैंने आपको बहुत खोजा पर मदनबेगा के पास आपकों देखकर संतुष्ट हो गई व यहीं रहने लगी। पर तभी मारने की इच्छा से आपको नीचे फेंका गया; तब मैंने आपको बीच में ही पकड़ लिया। इस समय हम और आप पंचनद तीर्थ के ह्रीमत पर्वत पर हैं।
एक दिन वसुदेव व वेगबती जब क्रीड़ा कर रहे थे, तो उन्होंने नागपास में बंधी एक सुन्दर कन्या को देखा व उसे बंधन मुक्त कर दिया। बंधन मुक्त हो जाने पर वह कन्या बोली- हे नाथ! आपकी कृपा से आज मेरी विद्या सिद्ध हो गई। इतना कहकर उसने यह सिद्ध विद्या बसुदेव के कहने पर वेगबती को दे दी। एक बार श्राबस्ती नगरी में वसुदेव
38 - संक्षिप्त जैन महाभारत