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सुन्दरी, शूरसेना व जीवद्धसा आदि कन्याओं से भी विवाह किया तथा वे अरिष्टपुर नगर पहुँच गये। यहां के राजा का नाम रूधिर था। राजा रूधिर की रूपसी पटरानी का नाम मित्रा था। रूधिर के ज्येष्ठ पुत्र का नाम हिरण्य था। उसकी गुणवान व सुन्दरी पुत्री का नाम रोहणी था। उत्तर पुराण में अरिष्टपुर नरेश का नाम हिरण्यवर्मा व उनकी पटरानी का नाम पदमावती बतलाया गया है।
एक बार अरिष्टपुर में वहां के नरेश ने अपनी पुत्री रोहणी के विवाह हेतु स्वयंवर आयोजित किया। इस स्वयंवर में जरासंध, उसके पुत्र, समुद्रविजय, उग्रसेन, राजा पांडु, विदुर, शल्य, शत्रुजय, चंद्राभ, पदमरथ आदि अनेक राजामहाराजा व राजपुत्र आये थे। वेष बदलकर वसुदेव भी इस स्वयंवर में जा पहुँचे व पणंव वादकों के पास जाकर बैठ गये। तभी धाय ने कुमारी रोहणी को उपस्थित सभी राजाओं व राजपुत्रों का परिचय कराया व उनके पास ले गईं। सभी को दिखाने के बाद जब धाय रोहिणी को लेकर वापिस जाने लगी; तभी पणंव की मधुर ध्वनि रोहणी के कानों में गूंजी। उसने मुड़कर देखा तो कामदेव से सुन्दर शरीर वाले वसुदेव पर उसकी निगाह पड़ी। तब शीघ्र ही मुड़कर रोहणी ने वसुदेव के गले में वरमाला डाल दी। यह देखकर वहां उपस्थित राजाओं ने कहा कि पणंव वादक को इस कन्या ने अपना वर चुना, यह अन्याय है। तभी वसुदेव ने उठकर कहा कि यदि स्वयंवर की विधि न जानने वाले अपने पराक्रम से मदमस्त हैं, तो सामने आकर सामना करें। तब राजा रुधिकर, दधिमुख व वसुदेव विद्याधरों के रथों पर आरुढ होकर वहां उपस्थित सभी राजाओं व राजपुत्रों से भिड़ गये। समुद्रविजय व वसुदेव के बीच भीषण युद्ध हुआ; जिसमें वसुदेव ने कभी भी पहले बार नहीं किया; क्योंकि वे अपने बड़े भाई व अन्य भाइयों को पहचान गये थे। अतः वसुदेव ने केवल उनकी ओर से छोड़े गये शस्त्रों का निराकरण ही किया। अंत में वसुदेव ने अपने नाम से चिन्हित बाण समुद्रविजय की ओर छोड़ा, जिसमें लिखा था कि हे महाराज! जो अज्ञात रूप से 40 - संक्षिप्त जैन महाभारत