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पांडु हैं। ये वज्रमाली विद्याधर से प्राप्त अभीष्ट वस्तुदाता मुद्रिका प्राप्त कर अदृश्य हो रमण हेतु मेरे पास आते हैं। कुन्ती के ये वचन सुनकर धाय भावी अनर्थ व राजदंड की आशंका से कांप उठी व कुन्ती से बोली- किसी भी नारी को पुरुष के समीप एकांत में नहीं रहना चाहिए। तुमने कुल में कलंक लगा दिया। तब कुन्ती ने धाय माँ से कहाहे माँ! अब तो इस घोर संकट के निवारण का उपाय सोचो, मुझे क्षमा कर दो। मैं उन्मत्त सी हो रही हूँ व पापी प्राणों के विसर्जन का उपाय ढूंढ रही हूँ। यह सुनकर धाय माँ ने कुन्ती से कहा ढाढस रखो, कोई उपाय करूंगी। ऐसा कहकर इस रहस्य को गुप्त रखा।
कुछ दिनों के बाद पांडु के संसर्ग से कुन्ती के गर्भ धारण के लक्षण प्रकट होने लगे। एक दिन कुन्ती के माता-पिता ने गर्भ लक्षणों से युक्त कुन्ती को देख लिया। तब उन्होंने धाय को बुलाकर फटकार लगाई-तुझे ज्ञान नहीं कि यदि कन्या एवं कुलवधू को उन्मुक्त कर दिया जावे तो सच्चरित्र व विचारशील होने पर भी वह अन्य पुरुषों के संसर्ग से कुल की कीर्ति को अवश्य ही नष्ट कर डालती है। तूने कुन्ती की ऐसी रक्षा की कि हमारे मुख पर कालिख पुत गई है। स्त्री एवं पुरुषों का संसर्ग अग्नि व घृत के समान होता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष कभी दोनों को एक स्थान पर नहीं रखते। तुमने अत्यन्त निदंनीय काम किया है। तुमने रक्षक होकर भक्षक का काम किया है। तुम्हारा अपराध अक्षम्य है। यह सुनकर धाय थर-थर कांपने लगी। किन्तु बाद में कुछ साहस बटोरकर निवेदन करने लगी-इसमें न मेरा दोष है, न कुन्ती का। यह कहकर पूरी कथा उन्हें (कुन्ती के माता-पिता को सुना दी व कहा कि कुन्ती व पांडु ने आपस में गंधर्व विवाह कर लिया था। अब आप जैसा चाहें वैसा करें। यह सुनकर कुन्ती के माता-पिता सोच विचार कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस रहस्य को अत्यन्त गुप्त रखा जावें। परन्तु सावधानी रखने पर भी यह रहस्य पानी के ऊपर पड़ी तेल की बूंद की तरह
संक्षिप्त जैन महाभारत - 49