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देखकर कुन्ती रोमांचित हो गई व उसका हृदय प्रकंपित हो गया। वह पांडु की सुन्दर छवि को देखकर शीघ्र ही काम वासना से घिर गई। वह विचारमग्न होकर सोचने लगी कि इसकी जिह्वा में सरस्वती, हृदय में लक्ष्मी व अंग-प्रत्यंग में शोभा का आगार है; तब वहां मेरे लिए कौन सा स्थान रिक्त है; जहां मैं रह सकू। तभी कुन्ती ने साहस बटोर कर पूछा-हे आर्य श्रेष्ठ-आप कौन हैं, आपका अभिप्राय क्या है व आप यहां कैसे प्रविष्ट हो गये? तब चतुर पांडु ने उत्तर दिया-कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नरेश व्यास पुत्र धृतराष्ट्र का मैं भाई हूँ। मैं आपके रुप, यौवन व गुणों पर मुग्ध होकर इस मुद्रिका की सहायता से आपके समीप आया हूँ। मेरा मन अब आपके अधीन हो चुका है। आप स्वीकार करो या नहीं। तब कुन्ती ने अपने पिता की आज्ञा के बिना कुछ भी कहने से मना कर दिया। तब पांडु बोलेजिस प्रकार उन्मत्त हाथी अंकुश की परवाह नहीं करता, वैसे ही कामी पुरुष लोक-लाज, धर्म, सदाचार, शास्त्र ज्ञान आदि को परे रख देता है। अतः अब या तो तुम मुझे सर्वस्व समर्पित कर दो या मेरे प्राण ले लो। मेरा शरीर काम के ताप से कंपित हो रहा है। तब कुन्ती के मौन रहने पर पांडु ने कुन्ती के गले में बांहे डाल दी एवं उसके मुख पदम की सुगंधि लेने के लिए भ्रमर सा उस पर टूट पड़ा। अंत में दोनों परस्पर पूर्ण संतुष्ट होकर प्रमुदित हुए। इस तरह पांडु बार-बार अदृश्य होकर कुन्ती के पास निःशंक भाव से उससे काम क्रीडा करने लगा।
पर एक दिन कुन्ती की धाय ने उन दोनों को देख लिया। तब धाय के यह पूछने पर कि यह पुरुष कौन है? कुन्ती हतप्रभ हो गई। उसकी हृदयगति मंद हो गई, देहयष्टि जकड़ सी गई, अंग-प्रत्यंग सुन्न हो गये। किन्तु फिर भी वह धैर्य धारण कर धाय से बोली- हे धाय मां! इस पुरुष से मेरा पूर्व संबंध या परिचय भी नहीं था। मेरा चित्त भी स्थिर था; पर कर्म वश मैं इसके वाग्जाल में फंस गई व आत्म समर्पण कर बैठी। ये कुरु देश के राजा व्यास के पुत्र
48 - संक्षिप्त जैन महाभारत