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मरा था। तब लोगों ने हाथी पर बैठकर नगर की ओर आ रहे सिंहकेतु को राज्य का उत्तराधिकारी जानकर उन्हें राजसिंहासन पर बैठा दिया । विद्युन्माला यहां की महारानी बन गई। सिंहकेतु हरिवंश का ही था, अतः उसकी माता मृकण्ड के नाम पर सिंहकेतु का नाम मार्कण्डेय रख दिया। उसी की संतति में हरिगिरि, हिमगिरि, बसुगिरि आदि अनेक राजा हुए। उन्हीं में कुशार्थ देश के शौर्यपुर नरेश शूरसेन हुए। शूरसेन के पुत्र का नाम वीर था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी था। राजा वीर की महारानी ने अंधकबृष्टि व नरबृष्टि नाम के दो पुत्रों को जन्म दिया। राजा वीर को शूरवीर के नाम से भी जाना जाता था। बाद में बड़े होने पर अंधकबृष्टि का विवाह सुभद्रा से हुआ। नरेश अंधकबृष्टि के सुभद्रा से उत्पन्न 10 पुत्र व 2 पुत्रियां थीं। इनमें सबसे बड़े समुद्रविजय व सबसे छोटे वसुदेव थे। पुत्रियों में कुन्ती ज्येष्ठ व माद्री लघु थी। शूरवीर / वीर के द्वितीय पुत्र नरबृष्टि का विवाह पदमावती से हुआ था। पदमावती ने महाप्रतापी तीन बालकों- उग्रसेन, महासेन व देवसेन को जन्म दिया। इनकी एक पुत्री भी थी; जिसका नाम गांधारी था। उत्तर पुराण में राजा शूर/ शूरसेन को वीर / शूरवीर कहा गया है। यमुना तट पर स्थित यह चंपापुरी नगरी ही बाद में शासक शूर के नाम पर शौरीपुर कहलाने लगी।
राजा बसु का सुबसु नाम का पुत्र जो कुंजरावर्तपुर/नागपुर में रहता था - का पुत्र बृहदरथ मागधेषपुर में रहने लगा था। उसके दृढरथ नाम का पुत्र पैदा हुआ। बाद में दृढरथ के नरवर, उसके पश्चात् दृढरथ, सुखरथ, दीपन, सागरसेन, सुमित्र, पृथु, बिंदुसार, देवगर्भ, शत्रुधन राजा बने। अनेक राजाओं के बाद उसी वंश में निहतशत्रू नाम का राजा हुआ। तत्पश्चात् शतपति, वृहदरथ, राजा बने। ये सभी राजगृह के स्वामी थे। वृहदरथ के पुत्र जरासंध ने जब राजगृह का शासन संभाला, तो उसने अपनी विभूति लंका नरेश रावण की तरह विस्तृत कर ली। वास्तव में रावण की भांति वह भी 9वां प्रतिनारायण था । जरासंध की पटरानी का नाम कालिंदसेना था। अपराजित आदि जरासंध के अनेक भाई थे - कालभवन
32 संक्षिप्त जैन महाभारत