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प्राक्कथन।
'मक्षिप्त जैन इतिहास के प्रथमभागने जैनधर्मके सैद्धान्तिक नवी प्राचीनता उल्लेखों एवं अन्य श्रोतोसे उसकी अज्ञात
और बहु प्राचीनताका दिग्दर्शन कराया जाचुछ २४ तीर्थकर । है। मतः उनका यहांपर दुहराना वृथा है। जैनधर्म निस समय कर्मभूमिके इस कालके प्रारंभमें पुनः श्री ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित हुमा था, उस समय सभ्यताका अरुणोदय होरहा था। यह ऋषभदेव इश्वाक्वंशी क्षत्री राजकुमार थे और हिन्दु पुराणों के अनुपार वे स्वयंम् मनुसे पांचवी पीटीमें हुये बतलाये गये हैं। उन्हें हिन्दू एवं बौद्ध शास्त्रकार भी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी
और इस युगके प्रारम्भ में जैनधर्मका प्ररूपण करनेवाला लिखते हैं। हिन्दु अवतारों में वह आठवें माने गये हैं और संभवतः वेदों में भी उन्हींका उल्लेख मिलता है । चौदहवें वामन अवतारका उल्लेख निस्सन्देह वेदोंमें है । अतः वामन अवतारसे पहले हुये आठ अवतार ऋषभदेवका उल्लेख इन मनेन वेदों में होना युक्तियुक्त प्रतीत होता है । कुछ भी हो उनका इन वेदोंसे प्राचीन होना सिद्ध है । इन ऋषभदेवकी मूर्तियां मानसे ढाईहनार वर्ष पहले भी सम्मान और पृज्य दृष्टिसे इस भारतमहीपर मान्यता पाती थीं। इन्हीं ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र सम्राट मरतके नामसे यह देश भारतवर्ष कहलाता है।
ऋषमदेवके उपरान्त दीर्घकालके अन्तरसे कपवार तेईस तीय. कर भगवान और हुये थे। उन्होंने परिवर्तित द्रव्य, क्षेत्र, काल,
१-संक्षिप्त बन इतिहास प्रथम भागको प्रस्तावना पृट २६-३०। २-भागवन ५:४, ५, ६।३-न्यायविन्द अ. व सतशास्त्र-'वीर' वर्ष । पृ. ३५३ । ४-माग, भगवान महावीर १० । ५-वधिमोमो. मा. ३ पृ. ४.. ।
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