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संक्षिप्त जैन इतिहास । मटल नियमसे अपने नैसर्सिग स्वभाव-सदा विजयी रहनेकी भावनासे वंचित नहीं है। अतएव विनयी होनेका धर्म प्राकृत-अनादिनिधन और पूर्ण सत्य है।
किन्तु प्रश्न यह है कि मनुष्यको किप्त प्रकार विजय पाना है ? क्या निस वस्तुको वह अपने माघीन करना चाहे, उसके लिये युद्ध ठान दे ? नहीं, मनुप्येतर प्राणियोंसे मनुप्यमें कुछ विशेषता है। उसके पास विवेकबुद्धि है; जिससे वह सत्यासत्यका निर्णय कर सक्ता है। यह विशेषता अन्य जीवोंको नसीब नहीं है । इस विवेकबुद्धिके अनुसार उसे विजय-मार्गमें अग्रसर होना समुचित है । और विवेक बतलाता है कि जो अन्याय है, दुर्गुण है, बुरी वासना है, उसको परास्त करनेके लिये कर्मक्षेत्रमें माना मनुष्यमात्रका कर्तव्य है। ठीक, यही बात जैनधर्म सिखाता है । वह विजयी. वीरों का धर्म है। उसके चौबीस तीर्थकर वीरशिरोमणि क्षत्रीकुलके रत्न थे । उनने परमोत्कृष्ट ज्ञानको पाकर विनय-मार्ग निर्दिष्ट किया था-मनुष्यों को बतला दिया था कि अनादिकालसे नीव अजीवके फंदेमें पड़ा हुआ है । प्रकृतिने चेतन पदार्थको अपने माधीन बना लिया है। इस प्रकृतिको यदि परास्त कर दिया जाय तो पूर्ण विन. यका परमानन्द प्राप्त हो । उसके लिये किप्तीका आश्रय लेना और पराया मुंह ताकना वृथा है। मनुष्य अपने पैरों खड़ा होवे और बुरी वासनाओं एवं कषायों को तबाह करके विनयी वीर बन जावे ! फिर वह स्वाधीन है। उसके लिये मानन्द ही आनन्द है। यह प्राकृत शिक्षा जैनधर्मकी अभेद्य प्राचीनता पार न मिलने का प्रर्याप्त उत्तर है।
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