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★ रत्न उपरत्न और नग नगीना ज्ञान * इन्द्र देव तथा समस्त देवता विष्णु भगवान् के पास गये और बलि से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान् विष्णु ने कहा कि यज्ञ बेदी में बलि की भेंट देने से ही यह सम्भव है। ऐसा कहकर भगवान् विष्णु ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा बलि के यज्ञ में पहुँचे तथा उससे आपने साढ़े तीन डग पृथ्वी माँगी। अपने तीन डगों में ही भगवान् ने तीनों लोकों को माप लिया तथा शेष आधे डग में उन्होंने बलि का शरीर माँगा। राजा बलि असुर अवश्य था किन्तु वह सत्यवादी और दानवीर भी था। दानवीर बलि यह जानकर कि वह ब्राह्मण कोई और नहीं स्वयं भगवान् विष्णु हैं उसने सहर्ष ही अपना शरीर भगवान् विष्णु को अर्पित कर दिया। प्रभु के चरणों का स्पर्श पाते ही बलि का शरीर हीरे में परिवर्तित हो गया। तत्पश्चात देवेन्द्र ने अपने शस्त्र 'वज्र' के माध्यम से उसके शरीर पर प्रहार किया तो उसके शरीर के सब अंगों तथा प्रत्येक तत्त्व से विभिन्न वर्गों के रत्नों की उत्पत्ति हुई। भगवान् शंकर ने अपने चार त्रिशूलों पर बारह राशियों एवं नौ ग्रहों को स्थिर करके बलि के दिव्य शरीर को मृत्युलोक में गिराया। ग्रहों व राशियों ने बलि के जिस-जिस अंग पर अपना अधिकार किया वे अंग ही उन ग्रहों व राशियों के लिये रत्न की खानें बनी। पृथ्वी पर यही रत्न मनुष्यों को उनके ग्रहानुसार फल देते हैं तथा लाभप्रद सिद्ध होते हैं। इन समस्त रत्नों का सार इस प्रकार है
१. देवेन्द के वज्र प्रहार से जो रक्त बलि के शरीर से निकल कर
पृथ्वी पर जहाँ गिरा वहाँ माणिक्य रत्नों की खानें उत्पन्न हुईं। यह रत्न सूर्य ग्रह का है। २. चन्द्र ग्रह ने असुर के चित्त को हरकर आठ स्थानों पर स्थित किया-१. स्वाति नक्षत्र, २. शंख, ३. सर्प, ४. शूकर, ५. गज, ६. मीन, ७. सीप और ८. सीप। राजा बलि का मन आठ स्थानों
पर स्थित होने के कारण इनसे आठ प्रकार के मोती उत्पन्न हुए। ३. राजा बलि के मस्तिष्क से निकला रक्त समुद्र में जाकर गिरा और
विद्रूममणि या रत्न उत्पन्न हुआ। ४. बलि के शरीर का पित्त पृथ्वी पर जहाँ गिरा वहाँ पन्ना रत्न की
खानें उत्पन्न हुई।
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