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शुद्ध रत्नों के स्थान पर जो लोग कीमती रत्न नहीं खरीद सकते उनके लिये नौ खोटी मणियाँ या उपरत्न शास्त्रों में कहा है। जिसके धारण करने से वहीं फल प्राप्त होगा जो बहुमूल्य रत्न से होता है। सूर्य के लिये माणिक रत्न की जगह संग तामड़ा और चन्द्र के लिये मोती की जगह निमरूसीप या शंख का उपयोग किया जा सकता है। इसी तरह मूंगे की जगह शाख मूंगा; बुध के लिये पन्ना की जगह संगवाड़ा, सोनामक्खी; गुरू के लिये पुखराज की जगह कहराव, शुक्र के लिये हीरा की जगह तिरमुली, काँसला; शनि के लिये नीलम की जगह जमुनिया नीली; राहु के लिये गोमेद की जगह तुरसाया; केतु के लिये लहसुनिया की जगह फीरोज आदि उपरत्न काम में लाये जा सकते हैं।
उपरत्न, संग एवं मोहरे ___ वास्तव में रत्न अपने मूल रूप में पाषाण होता है वही विशिष्ट रूपरंग आकार और गुण वाला होकर विभिन्न रत्नों के रूप में परिणत हो जाता है। जैसे सर्वगुण सम्पन्न, सारभूत पाषाण नव प्रकार के भेदों से नवरत्न बन गये हैं। वैसे ही उपरत्नों की श्रेणी में उन्हीं नवरत्नों में अपेक्षाकृत कम गुण वाले रत्न आते हैं। जो निम्न प्रकार के हैं
(१) सूर्यमणि या लालड़ी (२) फिरोजा (३) एमनी (४) भीष्मक या संग ईसव (५) लाजावर्त (६) चन्द्रमणि या पुखराज (७) उलूक मणि (८) तेलमणि या उदउक (९) उपलक या औपल (१०) अमृतमणि आदि इनमें लालड़ी नवरत्नों के नौ उपरत्नों में ही आने से कुल इक्कीस उपरत्न हो जाते हैं।
इन २१ उपरत्नों के भी अपेक्षाकृत कम गुण होने से ८४ 'संग' भेद
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