Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
प्रथम अध्याय....{11} निर्मल गुणात्मक स्वभाव से अथवा सद्गुरु आदि के उपदेश श्रवण से जो श्रद्धा, रुचि उत्पन्न होती है, उसे सम्यक् श्रद्धान कहा जाता है । ४५ इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से विरत न होने पर भी जिनाज्ञा में आस्थावान् होने से दृष्टिकोण सम्यक् अर्थात् समीचीन होता है। इस गुणस्थानवर्ती जीव को अविरतसम्यग्दृष्टि कहने का और सम्यग्दर्शन के साथ संयम न होने का कारण यह है कि यहाँ संयम का घातक अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय का उदय रहता है। इसी कारण वह अशुभ को अशुभ मानता है, लेकिन अशुभ आचरण से बच नहीं पाता। दूसरे शब्दों में बुराई को बुराई मानता है, परन्तु पूर्व के संस्कारों के कारण उन्हें छोड़ नहीं सकता। वह सत्य और न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य और अन्याय को छोड़ नहीं पाता है। महाभारत में ऐसा चरित्र भीष्म पितामह का है कि जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने को विवश है। जैन विचार इस अवस्था को अविरतसम्यग्दृष्टित्व कहता है। इसका तात्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीय कर्म शक्ति के उपशमित हो जाने या उसके आवरण के क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति को यथार्थ - बोध हो जाता है, लेकिन चारित्रमोहनीय कर्म की सत्ता रहने के कारण व्यक्ति सम्यक् आचरण नहीं कर पाता। वह एक अपंग व्यक्ति की भांति है, जो देखते हुए भी चल नहीं पाता । सम्यक् श्रद्धान दर्शनमोहनीय के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से होता है। इसके लिए यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-ये तीन करण करने पड़ते हैं।
यथाप्रवृत्तिकरण जैन साधना का लक्ष्य स्व-स्वरूप में स्थित होना या आत्म-साक्षात्कार करना है । स्व-स्वरूप में स्थित होने के लिए मोहनीय कर्म पर विजय पाना आवश्यक है, क्योंकि आत्मा का शुद्ध स्वरूप मोहनीय कर्म से आवृत्त है।
पंडित सुखलालजी के शब्दों में अज्ञानपूर्वक दुःख - संवेदनाजनित अत्यल्प आत्मविशुद्धि को जैनशास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । ४६ आत्मशक्ति के प्रकटन को रोकनेवाला सर्वाधिक ७० कोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाला मोहनीय कर्म है। आयुष्य कर्म के अलावा शेष सातों कर्मों की दीर्घस्थिति वह गिरि-नदी-पाषाण न्याय जब घटकर मात्र एक कोडाकोडी सागरोपम जितनी रह जाती है, तब यथाप्रवृत्तिकरण होता है। यथा अर्थात् सहजतया, प्रवृत्ति अर्थात् कार्य तथा करण अर्थात् जीव का परिणाम । जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में गिरा हुआ पाषाणखण्ड प्रवाह के कारण अचेतन रूप में ही आकृति रूप को धारण कर लेता है, वैसे ही शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की संवेदना को झेलते - झेलते इस संसार में परिभ्रमण करते हुए जब कर्मावरण बहुतांश शिथिल हो जाता है, तो आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण की शक्ति को प्राप्त करता है । यथाप्रवृत्तिकरण एक स्वाभाविक घटना के परिणामस्वरूप होता है, लेकिन इस अवस्था को प्राप्त करने पर आत्मा में आत्म-नियंत्रण की क्षमता प्राप्त हो जाती है ।
यथाप्रवृत्तिकरण भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव करते हैं, किन्तु अभव्य जीव यथाप्रवृत्तिकरण करके जहाँ होते है, वहीं रह जाते हैं और पुनः दीर्घस्थिति के कर्मों को बांधकर पतित हो जाते हैं । भव्य जीवों में भी अनेक जीव तो पतित हो जाते हैं, किन्तु कुछ जीव अधिक वीर्योल्लास अर्थात् आत्मपुरुषार्थ से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करके आगे बढ़ जाते हैं ।
यथाप्रवृत्तिकरण से चेतना की जड़ (कर्म) पर विजययात्रा एवं संघर्ष की कहानी प्रारम्भ होती है । इस अवस्था में चेतन आत्मा और जड़कर्म संघर्ष के लिए एक दूसरे के सामने डट जाते हैं। आत्मा ग्रन्थि के सम्मुख हो जाती है।
अपूर्वकरण-यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा आत्मा में आत्मसजगता का उदय होता है; विवेक बुद्धि और संयमभावना का प्रस्फुटन होता है । यथाप्रवृत्तिकरण के पश्चात् जब आत्मविशुद्धि के साथ वीर्योल्लास की आभा बढ़ती है, आत्मशक्ति का प्रकटन होता है, तब राग-द्वेष की उस दुर्भेद्य ग्रन्थि के भेदन का पुरुषार्थ किया जाता है। इस ग्रन्थिभेदरूपी पुरुषार्थ को ही अपूर्वकरण कहते हैं, क्योंकि ऐसा करण- परिणाम विकासगामिनी आत्मा के लिए अपूर्व होता है । यह उसे प्रथम बार प्राप्त होता है। यथाप्रवृत्तिकरण में इतना वीर्योल्लास उत्पन्न होता है कि वह राग-द्वेषरूपी शत्रुओं से युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाता है, लेकिन
४५ (क) यथोक्तेषु च तत्वेषु रुचिर्जीवस्य जायते । निसर्गादुपदेशाद्वा सम्यक्त्वं हि तदुच्यते । । - गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक १८.
(ब) तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा । - तत्त्वार्थसूत्र १/२ -३.
४६ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा - १७.
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