Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{10} सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान कहलाती है। जात्यन्तर सर्वघाती सम्यक्-मिथ्यात्व प्रकृति का स्वरूप सम्यक् और मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियों के मिले-जुले रूप (मिश्र रूप) होता है।
जैसे गुड़ और दही का योग होने पर उसमें न केवल दही का और न केवल गुड़ का स्वाद आता है, परन्तु दोनों का मिश्र स्वाद आता है, उसी प्रकार विवेक विकलता के कारण जिसको न तो जिनप्रणीत तत्वों पर श्रद्धा होती है और न अन्य मतों पर श्रद्धा होती है, अपितु दोनों पर समान बुद्धि होती है, वह मिश्रदृष्टि कहलाता है।" नारिकेलद्वीप के निवासी भात आदि अन्न के प्रति न तो रुचि रखते हैं, न ही अरुचि रखते हैं, क्योंकि वहाँ तो कभी अन्न पैदा ही नहीं हुआ। इसीलिए बिना देखे बिना सुने विवेक विकलता के कारण न तो रुचि रखते हैं और न ही अरुचि रखते हैं, अतः उनकी यह अवस्था मिश्र कही जाती है।
उत्क्रान्ति एवं अपक्रान्ति करनेवाली दोनों आत्माओं का आश्रयभूत यह गुणस्थान है। सम्यक् और मिथ्या दोनों के संदिग्ध प्रवाह में प्रवाहित आत्मा इस तृतीय भूमिका की स्वामी होती है। प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा यहाँ मिथ्यात्व का प्रभाव कमजोर होता है। प्रथम गुणस्थानवर्ती नित्य एकान्त मिथ्यादृष्टि होता है। पूर्व में सम्यग्दर्शन से च्युत होकर इस प्रथम गुणस्थान में प्रविष्ट जीवात्मा, प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधी तृतीय गुणस्थान में आती है या फिर चतुर्थ गुणस्थान से च्युत होकर भी इस तीसरे गुणस्थान में आती है। द्वितीय गुणस्थान केवल अपक्रान्ति है, किन्तु तृतीय गुणस्थान में अपक्रान्ति एवं उत्क्रान्ति दोनों होती है।
इस गुणस्थान की विशेषता यह है कि इसमें रहते हुए जीवात्मा न तो आयु का बन्ध करता है४२ और न ही मृत्यु को प्राप्त होता है, क्योंकि संदिग्ध अवस्था में ये दोनों सम्भव नहीं होते हैं।
आध्यात्मिक अपकर्षण के इन प्रथम तीन गुणस्थानों में प्रथम गुणस्थान दीर्घकालीन है, शेष दोनों गुणस्थान अल्पकालीन हैं। यह तृतीय मिश्र गुणस्थान अल्पकालीन होते हुए भी प्रथम और द्वितीय भूमिकाओं से महत्वपूर्ण है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की उत्क्रान्ति का सिंहद्वार है। प्रस्तुत भूमिका अन्तर्मुहूर्त समय की होती है। इस भूमिका को पाशविक और आध्यात्मिक वृत्तियों के संघर्ष का क्षण कह सकते हैं। यदि इस गुण में पाशविकता की जीत हो जाए, तो जीव मिथ्यात्वी बन जाता है और आध्यात्मिकता की जीत हो जाए, तो जीव सम्यक्त्व में स्थित हो जाता है। प्रस्तुत गुणस्थान अनिवार्य अथवा अनिश्चय की अवस्था है।
(४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान- उत्क्रान्ति का प्रथम बिन्दु होने से प्रस्तुत गुणस्थान को आध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका कह सकते हैं। प्रस्तुत गुणस्थानवी जीव की जीवनदृष्टि सम्यक् होती है, सत्य में आस्था होती है, फिर भी सम्यक् आचरण की स्थिति नहीं होती है, इसीलिए इसे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। ____ आध्यात्मिक विकास के आधार बिन्दु तीन हैं-दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की भूमिका में दर्शन एवं ज्ञान तो सम्यक् हो जाता है, किन्तु चारित्र या आचरण में पर्याप्त विकास नहीं होता है।५३ हिंसादि सावध व्यापारों के त्याग को ही विरति कहते हैं।४४ भव्य संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों की सर्वज्ञ प्रणीत जीवादि तत्वों पर पूर्वभव के अभ्यास विशेष से अत्यन्त
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४० सम्मामिच्छुदयेणय, जत्तंतर सव्वघादि कज्जेण।
न य सम्म मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा -२१ जात्यन्तर समुद्भतिर्वऽवाखरयोर्यथा। गुडदध्नोः सगायोगे, रस भेदान्तरं यथा।। तथा धर्मद्वये श्रद्धा, जायते समबुद्धितः। मिश्रोऽसौ भण्यते, तस्माद्भावो जात्यन्तरात्मकः।। -गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक नं. १४, १५, पृष्ठ -६ दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहभावं णोव करिंदु सक्कं। एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छो त्ति णादवो।। -गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा २२. सम्यग् मिथ्यारुचिर्मिश्रः सम्यग् मिथ्यात्व पाकतः।
सुदुष्कर पृथाभावो, दधिमिश्रः गुडोपमः।। -संस्कृत पंचसंग्रह श्लोक १/२२. ४२ आयु बध्नामि न जीवो मिश्रस्थो न वा. - गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक -१६. ४३ गोम्मटसार, गाथा -२६. ४४ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्। -तत्त्वार्थसूत्र ७/१.
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