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स्थानांग सूत्र : एक परिचय
साध्वी निर्वाणश्री जन आगम साहित्य में अंग साहित्य का अपना विशिष्ट स्थान है। त्याग करने पर ही व्यक्ति सही अर्थ में धर्म को सुनता है, बोधि प्राप्त स्थानांग (ठाणं) सूत्र तृतीय अंग है। विषय प्रतिपादन की द्रष्टि से इसका करता है और सत्य का अनुभव करता है। दार्शनिक द्रष्टि से भी इस स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसमें लगभग १२०० विषयों का विस्तार लाखों तक अध्ययन का मूल्य है। इसमें प्रमाण जो स्वरुप प्रतिपादित हुआ है, वह नंदी चला जाता है। इस ग्रंथ की समग्र विषय वस्तु दस स्थानों (अध्यनों)में सूत्र की अपेक्षा अधिक प्राचीन प्रतीत होता है। प्रत्यक्ष के दो प्रकार निर्दिष्ट विभक्त है। संख्या क्रम के आधार पर एक-एक विषय को वर्गीकृत किया हैं - केवलज्ञान प्रत्यक्ष और नो केवलज्ञान प्रत्यक्ष। यह अध्ययन चार गया है। यथा एक स्थान में एक-एक विषयों की सूची है। दूसरे स्थान में उद्देशकों में विभक्त है। दो-दो विषयों का समाहार है। इसी प्रकार दस तक की संख्या के क्रम से ततीय स्थान - चार उद्देशकों में वर्गीकृत इस अध्ययन में तीन की विषयों का संकलन है। बौद्धपिटक 'अंगुत्तर निकाय' एवं इसकी प्रतिपादन संख्या से नाना विषयो का संकलन किया गया है। तात्त्विक विषयों केर शैली में काफी साम्य है।
साथ साहित्यिक एवं मनोवैज्ञानिक विषयों का समावेश ग्रंथकार की बहुश्रुतता इस आगम की रचना का मुख्य उद्देश्य संख्या के अनुपात से एक को अभिव्यक्त करता है। मनुष्य के तीन प्रकार - सुमनस्क, दुर्मनस्क द्रव्य को अनेक विकल्पों से विश्लेषित करना है। यथा प्रत्येक शरीर की और तटस्थ नाना मनोभूमिकाओं के संसूचक हैं। यह मनोभूमिका नाना द्रष्टि से जीव एक है। संसारी और मुक्त इस अपेक्षा से उसके दो भेद हैं। प्रवृत्तियों के साथ देखी जा सकती है। यथा - सात्त्विक, हित और मित अथवा ज्ञान चेतना एवं दर्शन चेतना की द्रष्टि से वह द्विगुणात्मक है। कर्म
भोजन करनेवाले खाने के बाद सुख का अनुभव करते हैं। अहितकर चेतना, कर्मफल चेतना एवं ज्ञान चेतना की द्रष्टि से वह त्रिगुणात्मक है। और मात्राधिक भोजन करनेवाले भोजन के बाद दुःख का अनुभव करते अथवा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त होने से वह त्रिगुणात्मक है। गति चतुष्ट्य हैं। अहितकर और मात्राधिक भोजन करनेवाले भोजन के बाद दःख का के कारण वह चार प्रकार का है। उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम एवं
अनुभव करते हैं। साधक भोजन के बाद सुख-दुःख का अनुभव नहीं पारिणामिक भाव की अपेक्षा वह पंच गुणात्मक है। वह छहों दिशाओं में
करतो, अपितु वह तटस्थ बने रहते हैं। कुछ प्राकृतिक विषयों का संकलन गमन करता है। अतः षड्विकल्पात्मक है। उसे सप्तरंगी से विश्लेषित
भी प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है। अतिवृष्टि और अल्पवृष्टि के हेतु करने पर वह सात प्रकार का है। आठ कर्मों से युक्त होने से उसके आठ
परिगणित हैं। व्यवसाय के आलापक में लौकिक, वैदिक और सामयिक विकल्प किए गए है। पांच स्थावर एवं तीन विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय में
तीनों व्यवसायों का निरुपण है। वैदिक व्यवसाय के अंतर्गत तीन वेदउत्पत्ति धर्मा होने के कारण वह नवधा है। द्विविध वनस्पति काय तथा सभी
ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का उल्लेख हे। अथर्ववेद इन तीनों से कायों में उत्पतिधर्मा होने के कारण उसके दस प्रकार हैं। प्रत्येक अध्ययन
उद्धृत है। इस प्रकार अनेक सूचनाएं भी इस अध्ययन में वर्णित हैं। का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
चतुर्थ स्थान - चार की संख्या से संबंध्द चार उद्देशकों में विभक्त प्रथम स्थान - एक की संख्या के आधार संग्रह नय की द्रष्टि से
प्रस्तुत अध्ययन में अनेक विषयों की चतुर्भंगियां हैं। अनेक व्यावहारिक वस्तु तत्त्व का निरुपण किया गया है। इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य
वस्तुओं के आधार पर मनुष्य की सूक्ष्म मनोदशा का विश्लेषण किया गया तत्त्ववाद (द्रव्यानुयोग) है। कुछ सूत्र आछार (चरणकरणानुयोग) से संबंधित
है। कुछ वृक्ष मूल में सीधे रहते हैं, परंतु ऊपर जाकर वे टेढ़े बन जाते हैं हैं। भगवान महावीर अकेले परिनिर्वाण को प्राप्त हुए, इस ऐतिहासिक
और कुछ सीधे ही ऊपर बढ़ जाते हैं। कुछ वृक्ष मूल में भी सीधे नहीं होते तथ्य की सूचना प्रस्तुत अध्ययन से प्राप्त होती है। कालचक्र और ज्योतिषचक्र से संबंधित सूत्र भी इसमें उपलब्ध हैं।
और ऊपर जाकर भी सीधे नहीं रहते हैं। व्यक्तियों का स्वभाव भी इसी द्वितीय स्थान - प्रस्तुत अध्ययन में दो की संख्या से संबध्द विषयों
प्रकार होता हैं। कुछ व्यक्ति हृदय से सरल होते हुए भी व्यवहार में कुटिलता का प्रतिपादन है। जिन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। वह चेतन और अचेतन
करते हैं। कुछ मन में सरलता न होने पर भी परिस्थितिवश उसका दिखावा दोनों को मूल तत्त्व के रुप में स्वीकार करता है। इसमें द्वैत के साथ अद्वैत
करते हैं। कुछ व्यक्ति अंतर में कुटिल होते है और व्यवहार में भी कुटिलता की सापेक्ष संगति को स्वीकार किया गया है। जागतिक और चैतसिक
पर किया गया है। जागतिक और तमिक दिखाते हैं। भगवान महावीर सत्य के महान साधक थे। प्रस्तुत अध्ययन समस्याओं के संदर्भ में भगवान महावीर का मौलिक चिंतन प्रस्तुत अध्ययन में उनकी सत्य - संधित्सा के निदर्शन इस रुप में प्राप्त हैं - में प्राप्त होता है। उनका अभिमत है- हिंसा और परिग्रह की वास्तविकता * कुछ पुरुष वस्त्र का त्याग कर देते हैं, पर धर्म का त्याग नहीं करते। को नहीं जानता वह न धर्म सुन सकता है न बोधि को प्राप्त कर सकता है * कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं, पर वेश का त्याग नहीं करते। और न ही सत्य का साक्षात्कार कर सकता है। हिंसा और परिग्रह का * कुछ पुरुष धर्म का त्याग कर देते हैं और वेश का भी त्याग कर
1 એપ્રિલ - ૨૦૧૮
राष्टिीय-भावन'विशेष8 - प्रबुद्ध वन