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वावीसमो संधि कैकेयी वहाँ गयी जहाँ आस्थानमार्ग था और उसपर इन्द्रको तरह राजा बैठा हुआ था। उसने वर माँगा--"हे स्वामी, यह वह समय है। मेरे पुत्रको राज्यका अनुपालक नियुक्त कीजिए।" हे प्रिये, ऐसा हो, ( यह कहकर ) उसने गर्वसहित राम और लक्ष्मणको पुकारा। "यदि तुम मेरे पुत्र हो, तो इतनी आज्ञा करना कि छत्र, सिंहासन और धरती भरतको अर्पित कर दो।" ॥१-६॥
[९] अथवा भरत भी आसन्नभव्य है, वह सबको असार और अस्थिर समझते हैं। घर, परिजन, जीवन, शरीर और धनको भी। उनका चित्त तपश्चरण में रखा हुआ है। यदि मैं तुम्हें छोड़कर भरतको राज्य दूं तो लक्ष्मण लाखोंका काम तमाम कर देगा। न मैं, न भरत और न कैकेयी ही। शत्रुध्नकुमार
और सुप्रभा भी नहीं ? यह सुनकर प्रफुल्लमुख दशरथपुत्रने कहा-"पुत्रका पुत्रत्व लसीमें है कि वह कुलको संकट-समूहमें नहीं डालता, जो वह अपने पिताकी आज्ञा धारण करता है
और जो विपक्षका प्राण-नाश करता है । गुणहीन और हृदयको पीड़ा पहुँचानेवाले 'पुत्र' शब्दकी पूर्ति करनेवाले पुत्रसे क्या ?" "लक्ष्मण हनन नहीं करता, आप तप साधे, सत्यको प्रकाशित करें, भरत धरतीका भोग करें; हे पिता, मैं वनवासके लिए जाता हूँ ।" ॥१-९॥
[१०] राजा दशरथने भरतको पुकारा और स्नेहसे भरे हुए उन्होंने कहा, "तुम्हारे छत्र हैं, तुम्हारा सिंहासन हैं, तुम्हारा राज्य है। मैं अब अपने कामको (परलोक ) सिद्ध करूँगा।" यह सुनकर कैकेयीपुत्र ( भरत ) ने दुःखीमनसे धिक्कारा, "हे पिता, तुम्हें धिक्कार है, राज्यको धिक्कार है, माताको धिक्कार है, राज्यके सिरपर वन पड़े। हम नहीं जानते महिलाओंका क्या स्वभाव होता है? यौवनके मदमें वे पापको भी नहीं